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बचपन की बारिश और कागज की नाव

क्या फिर से जुड़ पाएगा भाई बहन का एक बिखरा हुआ रिश्ता!


" और ये बन गयी तुम्हारी नाव "

" चलो न पापा अब इसे पानी पर चलाते है "

" बेटा पहले बारिश बन्द तो जो जाये वरना नाव डूब जायेगी "

सार्थक ने अपने 5 साल के बेटे अंश के हाथों मे कागज का नाव रखते हुए कहा।

"  पहले गरम - गरम पकोड़े तो खा लो, देखो तो प्लेट पर कैसे उछल रही है "
सार्थक की पत्नी अनिता ने आवाज लगाते हुए उन दोनों से कहा।

रविवार का दिन होने से सार्थक आपनी पत्नी और बेटे के साथ अनमोल क्षण व्यतीत किये जा रहा था।
घनघोर घटाएं, बादलों की गड़गड़ाहट और चमकारी लेती हुई बिजली सावन का ये महीना बीते दिनों की सुध ले रहा था। न जाने कितनी ही भूली बिसरी यादें जुड़ी है इसके साथ, सार्थक खिड़की की ओर झाँकता मंद-मंद मुस्कुराये जा रहा था। कितने सुहाने दिन थे वो जब वो और उसकी छोटी बहन अनु हाथों मे कागज का नाव लेकर बारिश के बंद होने का इंतजार किया करते थे। माँ तो छड़ी लेकर कूटने ही दौड़ पड़ती थी जब उनको भनक लग जाती थी कि उन दोनों ने अपनी नयी कॉपी के पन्ने चीरकर नाव बनाये है और वे दबे पांव भाग जाते थे। वो घर के आँगन से निकलती हुई नाली जो बरसात मे लबालब भर जाती थी और वो उन दोनों के लिए कोई नदी, तालाब से कम न थे, जिसमे मे वो कागज के नाव की प्रतियोगिता रखते थे और चल पड़ते थे उसके साथ-साथ जहाँ तक वो नाव जाता उनके कदम भी रुकते नही थे और अंत मे जब वो कागज का नाव किसी बड़े नाले मे जाकर डूब जाता, तब ऐसा लगता जैसे वो जीवन के पूरे सफर को पार कर गये हो बिना बाधाओं के।
आज भी याद है वो दिन जब वे नाव चलाने की होड़ मे सुबह से निकल पड़े थे और बारिश से पूरी तरह तर बतर होकर दोपहर को घर लौटे थे। माँ की तो आँखे सूज गयी थी रो रो कर, पिता जी के जाने के बाद माँ ने ही तो उन्हे सँभाला था। ये बारिश जब भी आती हैं अपने साथ उन स्मृतियों को भी संग ले आती है जो कहीं दूर छूट गये हैं।
बरसों बीत गए अब अनु से रिश्ता टूटे,  उसने तो गिड़गिड़ा कर सार्थक के पैर पकड़ लिये थे और कहा था - " भैया.. मुझे अनाथ न करो ऐसा क्या घोर पाप कर लिया मैने "

अनिता ने भी रिश्ते की इस डोर को सँवारने मे कोई कसर न छोड़ी, पर सार्थक ही अपनी जिद पर अड़ा रहा। उसकी नजर मे तो भागकर प्रेम विवाह करना जुर्म की तरह हो गया, अगर माँ होती तो शायद वो भी अनु को माफ न करती। सार्थक आँखे बारिश की बूंदों की तरह अब बरसने लगे।
अंश अपने कमरे मे जाकर बारिश बन्द होने की प्रतीक्षा करने लगा। अनिता सार्थक के करीब आकर खड़ी हुई और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा
" क्या हुआ सार्थक आज फिर अनु की याद आ गयी न आपको "

"  नहीं, नहीं ऐसा कुछ नही। बस माँ की याद आ रही थी बस "

" माँ और बहन दोनो मे इतना अंतर करने लगे आप, ये नही सोचा कि जो जीवित है उसकी उसकी सुध ले ले कम से कम "

" क्या वो भी हमे इतना याद करती होगी, आज तक कोई सन्देशा आया उसका "

" रिश्ता तो आपने तोड़ा था, कोशिश भी आप ही कीजिये "

अनिता ने सार्थक को बहुत समझाया और फिर पुरानी डायरी के पन्नों से अनु का नंबर ले आयी। बड़ी मुश्किल से सार्थक के अधरों से बोल फूटे

" हेलो मै सार्थक बोल रहा हूँ अनु से बात हो सकती है क्या "

" ककक.. कैसे हो मेरे भैया, और भाभी कैसी है "

" ठीक है मेरी बच्ची , तु कैसी है मेरी जरा भी याद नही आती क्या तुझे "

"  बहुत आती है भैया, अंश कैसा है "


" ठीक है गुड़िया वो भी बारिश थमने का इंतजार  कर रहा है  नाव चलाने के लिये "

" बिल्कुल हमारी तरह न भैया "

" हाँ मेरी लाडो, आज बारिश की बूंदो और कागज की नाव ने मुझे एहसास दिलाया कि मै नही जी सकता मेरी गुड़िया तेरे बिना "

"  तो आना न भैया, राखी पर मुझे लेने "

" जरूर मेरी गुड़िया "

भाई बहन के बीच लगातार 2 घण्टे तक बातचीत चली।अब सार्थक और अनिता का मन आंनदित हो उठा। बारिश बंद हो चुकी थी छत का सारा पानी बाहर कॉलोनी की ओर बहता जा रहा था। अंश अपनी नाव लेकर आया और फिर अपने पापा के संग इस बहते हुए पानी मे छलाँग लगाने लगा। कितना अदभुत आनन्द है इस बचपन की बारिश और कागज की नाव मे।

समाप्त।
✍️ लेखक
पुष्पेंद्र कुमार पटेल


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