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बनफूल

एक सम्राट की चाहत...


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मूसलाधार बारिश हो रही थी। बाहर बिजली और बादलों का आपस में युद्ध छिड़ा था। पूरा संसार नींद की आगोश में था। किसी की आँखों में मीठे सपने थे तो कोई गहरी नींद में खर्राटे भर रहा था। लेकिन ऐसी ही इस काली, भिन्न रात में मुंबई की एक आलीशान इमारत के 72वें माले पर बने एक केबिन में अब भी रोशनी जल रही थी। उस सन्नाटेदार रात में पूरे केबिन में सिवाय शांति के और कोई आवाज़ न थी।

घड़ी ने बारह के घंटे बजाए ही थे कि कुछ देर में एक लंबा, गठीला, चेहरे पर कोई भी भाव तुरंत पहचान में न आने वाला, बेहद चतुर लेकिन उतना ही निर्दयी और स्वामिभक्त तीस–पैंतीस वर्ष का पुरुष दरवाज़े पर दस्तक देकर भीतर आया।

उसकी気 आहट पाते ही, केबिन की ऊँची कुर्सी पर बैठे युवक ने अधिकारभरी नज़र से उसकी ओर देखा। उस नज़र में एक धार थी और एक सवाल…।
केबिन में आए उस बलिष्ठ आदमी ने उसकी आँखों का सवाल पढ़ा और सिर झुकाकर निराशा से ‘नहीं’ में गर्दन हिलाई।

यह देखते ही कुर्सी पर बैठा युवक क्षणभर के लिए स्तब्ध रह गया। उसने आँखें मूँदीं और सिर कुर्सी से टिकाया। उसके मन में क्या चल रहा था, यह समझना मुश्किल था। कुछ देर बाद वह उठ खड़ा हुआ और उस क्लासिक इटालियन मार्बल पर अपने जूतों की टक-टक करता हुआ वहाँ से बाहर निकल गया। उसकी पीठ फिरते ही वह आठों आदमी भी जल्दबाजी से उसके पीछे हो लिए।

सिर्फ दस मिनट में ही लग्ज़री कारों का काफ़िला उस इमारत के प्रांगण से तेज़ी से बाहर निकला।

कुछ देर बाद वह काफ़िला एक बेहद आलीशान मेंशन के पास आकर रुका। घर कहें या महल? ऐसा भ्रम किसी को भी हो जाए, इतना भव्य वातावरण था। खानदानी वैभव और असल ऐश्वर्य का प्रत्यक्ष उदाहरण।

कारों का काफ़िला भीतर प्रवेश किया। कुछ समय बाद मेंशन की 12वीं मंज़िल की बालकनी के काँच के दरवाज़े से एक पुरुष आकृति नज़र आने लगी—एक हाथ में सिगार और दूसरे हाथ में महँगी व्हिस्की का चमकता ग्लास।

उस आकृति को ऐसा चेहरा मिला था कि अप्सरा भी देखते ही अपना दिल अर्पण कर दे। अभी-अभी नहाकर बाहर आने से उसके शर्टलेस शरीर पर पानी की बूँदें मोती जैसी चमक रही थीं। नियमित व्यायाम से तराशी हुई परफेक्ट बॉडी, छह फुट से ऊपर की ऊँचाई, गोरा रंग और वो भेदक बादामी आँखें, जिनसे बड़े-बड़े रौबदार लोग भी एक पल में ठंडे पड़ जाते...
स्स्स्स्स्स... देखने वाले के मन में एक ख्याल ज़रूर आता—क्या यही मदन का पुतला है?

पर इस वक़्त उन बादामी आँखों में बाहर बरसते पानी को देख कुछ और ही उतर आया था... एक ओढ़, एक विवशता, जैसे चातक पहली वर्षा की प्रतीक्षा करता है... जैसे तपते रेगिस्तान में कोई पानी की तलाश में प्यास से तड़प रहा हो। वही भाव उसके आँखों में झलक रहे थे।

दिन भर की इंटरनेशनल मीटिंग्स, कॉन्फ़्रेंसेज़, करोड़ों की डील्स, हज़ारों का स्टाफ—इन सबको बर्फ़ की तरह ठंडे दिमाग़ से सँभालने वाला वही इंसान इस एकांत में बारिश के सामने अपने भाव छिपा नहीं पा रहा था।

"कहाँ हो तुम? कितना ढूँढूँ तुम्हें? मिल जाओ न बस एक बार, सिर्फ़ एक बार मेरी आँखों के सामने आ जाओ। आई प्रॉमिस उसके बाद तुम्हें कहीं जाने नहीं दूँगा। खो चुका हूँ मैं तुममें पूरी तरह। आओ न प्लीज़, एक बार..."
अपने हाथ में थामे उस झुमके पर उँगलियाँ फिराते हुए वह आकृति मन ही मन किसी को पुकार रही थी।

पूरे एक साल से यही क्रम चल रहा था। रोज़ वह उसे ढूँढता। पूरे एशिया महाद्वीप का सबसे अमीर और सबसे सफल बिज़नेसमैन होने के नाते उसने अपनी पूरी ताक़त लगा दी थी। दुनिया के नामी-गिरामी, बुद्धिमान और तेज़तर्रार लोग उसकी टीम में थे, जो उसे खोज रहे थे। मगर वह थी कि मिलती ही न थी।

हर रात वह अपने ऑफिस के केबिन में बैठकर दिन का आख़िरी रिपोर्ट आने की प्रतीक्षा करता। उसकी इंटेलिजेंस टीम का हेड ‘शेरा’ हर बार यही निराशाजनक रिपोर्ट लेकर आता कि वह नहीं मिली। और फिर वह उदास मन से अपने मेंशन लौट आता... अगले दिन की प्रतीक्षा में... नई उम्मीद के साथ फिर से उसे खोजने के लिए।

रात काफ़ी देर बाद वह आकृति वहाँ से हटकर अपने किंग साइज बेड पर आ लेटी। थोड़ी शांत, थोड़ी तड़पती और थोड़ी इस नए विश्वास में कि कल शायद वह मिले...

वह आकृति और कोई नहीं बल्कि एशिया का नंबर वन बिज़नेसमैन, मोस्ट एलिजिबल बैचलर, जिसके एक इशारे पर देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था हिल सकती थी— युगंधर आबासाहेब जहागीरदार था!!!

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आगे क्या होगा...? किसे खोज रहा है युगंधर जहागीरदार?
क्या उसे वह मिलेगी?
पढ़ते रहिए बनफूल..


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