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गड़चिरोली ज़िले के एक दूरदराज़ गाँव में...
"कुसे अगे रे कुसे... क्या कर रही हो माँ, उधर? वारली की वारली घूमती रहती हो... ज़रा सा पानी की बूँद भी पड़ जाए तो तुम्हें बेचैनी चढ़ जाती है माँ... दस बार समझाया... मत जाओ... पर तुम्हारे कान में कभी सुनाई देता है क्या? अरे कुसे... आती हो कि नहीं? तुम्हारी भाभी माँ कोटी-कोटी ढूँढ़ रही थी तुम्हें... मुझे सब पता है... ज़रा देर और लगी तो गुस्से में खूब डाँट पड़ेगी... अब आ भी जाओ दहलीज़ पर!"
(यह बोली भंडारा–गोंदिया–चंद्रपुर–गड़चिरोली के कुछ हिस्सों में बोली जाती है। इसे झाड़ी बोली कहते हैं।)
कस्तूरी के कानों में उसकी माँ की लगातार बकबक गूंज रही थी... लेकिन वह कहाँ सुन रही थी? वह तो डूबी हुई थी... झमाझम बारिश की धाराओं में... अपने प्रियकर की बाँहों में... हाँ, प्रियकर ही तो था वह उसका... बिल्कुल बावला... उसे तो हमेशा यही लगता कि यह बरसता हुआ बादल केवल उसी के लिए उमड़ता है। ज़रा-सा भी कहीं बरसने लगता तो उसकी आस लग जाती... जैसे वह पागल हो जाती हो उसके लिए। जब तक मन भरकर भीग न ले, तब तक उसे और कुछ सूझता ही नहीं...
गाँव के लिए तो यह कोई नई बात नहीं थी। सबको पता था—बारिश होते ही यह लड़की घर से निकल पड़ेगी, भीगते-भीगते इधर-उधर भटकेगी और फिर घर से कोई न कोई उसे ढूँढने निकलेगा।
गाँव भी कितना बड़ा था भला? देऊलगाँव... बमुश्किल पाँच-छः सौ लोगों की आबादी। ज़्यादातर किसान परिवार। चारों ओर फैला हुआ हरियाली का गहना। गाँव के बीचों-बीच शिवजी का छोटा-सा प्राचीन मंदिर... गाँव वालों को वही मंदिर उनकी शान लगता।
इसी गाँव में रहती थी वह... कस्तूरी राजाराव सोनवाने।
दूध में घुली केसर जैसा रंग, पाँच फुट छह इंच लंबा छरहरा शरीर, काले गहरे नयन... कमर के नीचे तक लहराते हल्के घुँघराले बाल, नुकीली नाक, गुलाबी पतले होंठ... जैसे सौंदर्य की परिभाषा उसी पर ठहर जाती हो। मधुर वाणी की जन्मजात देन और उस से भी ज़्यादा मीठा स्वभाव... देऊलगाँव की पहाड़ियों से उतरती निर्मल झरनों की खनक मानो उसके स्वभाव में उतर आई थी।
आई की आवाज़ अचानक कड़ी हुई तो कस्तूरी होश में आई।
"आ रही हूँ..." आवाज़ लगाते ही वह घर के पिछले दरवाज़े पर पहुँची। अभी भीतर कदम रखा ही था कि पीठ पर एक जोरदार चाँटा पड़ा—
"आ रही हूँ..." आवाज़ लगाते ही वह घर के पिछले दरवाज़े पर पहुँची। अभी भीतर कदम रखा ही था कि पीठ पर एक जोरदार चाँटा पड़ा—
"मार डाला रे!"
कस्तूरी पीठ सहलाने लगी।
"इतना मत मारो माँ... ज़रा भी होश नहीं है क्या? कब तक झूले पर बैठी रहती? संध्या तक वहीं रह जाती क्या?"
"इतना मत मारो माँ... ज़रा भी होश नहीं है क्या? कब तक झूले पर बैठी रहती? संध्या तक वहीं रह जाती क्या?"
सिंधुबाई ने एक और चाँटा मारा। अब कस्तूरी को पहचानकर रुकना ही पड़ा। तभी उसकी भाभी—यमुना बीच में आ गई।
"क्यों करती हैं मामी? जाने दीजिए न... कल कॉलेज जाना है इसे... समय मिलेगा तो फिर नहीं रह पाएगी यहाँ। रहने दीजिए... चलो कुसा, गरम पानी से नहा लो... बारिश की ठंड न लग जाए।"
कहते हुए उसने कस्तूरी को स्नानघर की ओर लगभग धकेल ही दिया।
सिंधुबाई गुस्से में बड़बड़ाती भीतर चली गईं और यमुना धीरे से मुस्कुराने लगी।
यह तो रोज़ का किस्सा था—माँ उसे डाँटती और भाभी उसे बचा लेती। दोनों ननद-भाभी असल में सखी थीं।
परिवार बड़ा प्यारा था—माँ सिंधुबाई, पिता राजाराव, बड़ा भाई अभिजीत, भाभी यमुना और छोटा भतीजा विश्वा। दूर के काका संजय राव भी उनके साथ ही रहते। वे सेना से रिटायर थे, कभी विवाह नहीं किया था। खेती-बाड़ी में मदद और महादेव के मंदिर की सेवा—इसी में उनका जीवन। घर में उनका कहा अंतिम माना जाता। कस्तूरी पर तो उनका विशेष स्नेह था। उन्होंने ही उसे आत्मरक्षा की शिक्षा दी थी।
भाई अभिजीत गाँव की स्कूल में अध्यापक था, मगर खेती से भी उसे गहरा लगाव था। यमुना उसकी हर बात में सच्ची साथी बनी रहती।
हाल ही में कस्तूरी ने ग्रेजुएशन पूरा किया था। उसकी मेधावी प्रतिभा के कारण मुंबई के एक बड़े कॉलेज में दाख़िला मिला था और साथ ही छात्रवृत्ति भी। गाँव की बेटी होते हुए भी घर वाले बहुत आधुनिक सोच रखते थे। इसलिए उसकी पढ़ाई में पूरा समर्थन था। अगले ही दिन उसे मुंबई के लिए निकलना था।
उस रात भोजन के समय सबने मिलकर उसे समझाते-समझाते थका दिया।
"कुसाबाई, मुंबई में तुम्हारे कॉलेज के पास मेरे जानने वालों का गर्ल्स हॉस्टल है। मैंने वहाँ के प्रबंधकों से बात कर ली है। तुम्हारा ठिकाना वहीं होगा। वैसे तो मैं साथ चल ही रहा हूँ तुम्हें छोड़ने... मगर पहले से जान लो। समझीं?" —संजय काका ने कहा।
"हाँ काका, ध्यान रखूँगी..." कस्तूरी ने हँसकर सिर हिलाया।
असल में उसे इतनी दूर भेजना सबको भारी लग रहा था... मगर और कोई चारा भी नहीं था।
अगले दिन—
गड़चिरोली स्टेशन पर कस्तूरी अपने पिता की बाँहों में लिपटकर बैठी थी। इतने दिनों तक घर से दूर रहने की कल्पना मात्र से उसका दिल भर आया। अभिजीत ने भी बहन का हाथ कसकर पकड़ रखा था। ऊपर से वह उसे समझा रहा था... मगर यह समझाना बहन को था या ख़ुद को, यह वही नहीं जानता। पहले भी वह पढ़ाई के लिए बाहर गई थी... मगर दूरी पचास-साठ किलोमीटर की ही थी। कभी भी मिलने आ सकती थी। मगर अब की बार मामला बिल्कुल अलग था। राजाराव की आँखें भी छलक आईं।
गाड़ी ने सीटी दी तो सबने जैसे अपने आँसू रोक लिए। एक-दूसरे को विदा दी और गाड़ी स्टेशन छोड़ गई।
एक नए सफ़र की शुरुआत हुई।
ऊपर-ऊपर से सब साधारण लग रहा था... मगर नियति के पास कौन-सी गुत्थियाँ छिपी थीं, शायद खुद कस्तूरी भी नहीं जानती थी।
इधर कस्तूरी खिड़की से पीछे भागते पेड़-पहाड़, गाँव-शहर देख रही थी... और उधर मुंबई में कोई उसकी राह आँखों में प्राण भरकर ताक रहा था।
...आगे क्या होगा...?
पढ़ते रहिए— "बनफूल"
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