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पहचान

यह कविता पर लेख अहाना कौसर द्वारा लिखा गया है । इसके सभी अधिकारलेखिका के पास है कृपया इसको लेखिका के नाम के साथ ही शेयर कीजिए । इसमें यह कोशिश की गई हैकी महिलाओं कोजागृत किया जाएऔर पुरुषों को उनका महत्व यानी महिलाओं का महत्व समझाया जाए ।
पहचान

क्या आप मुझे जानते हैं ? ज़रूरी तो नहीं कि आप मुझे जानते ही हो । पर यह ज़रूर है के मैं आप ही के घर से हूँ । नहीं पहचाना मुझे अब भी ? चलें कोई बात नहीं । अब आप मुझे जान जाओगे ।
याद है वह दिन जब आपके घर में किसी नए मेहमान ने जन्म लिया ? किलकारियाँ गूंजी तो सब खुश हुए थे। दिया ही है विधाता ने इसलिए हम क़ुबूल भी हुए थे। मोहल्ले रिश्तेदारों में "कोई बात नहीं " कहते हुए जलेबियां भी बटीं थी ।
अब पहचाना मुझे ? मैं बेटी हूँ !

नन्हे नन्हे कदमों से पुरे घर में दौड लगाती , हसतीं थी जब गमले के फुल भी खिला जाती ।
आ जायेंगे अब , तो मिलकर खाते है;
पापा कब तक आयेंगे ? नैना उसके आस लगाते ।
स्कूल में मिली टॉफी वह घर लेकर के आती ,
कर टुकड़े उस एक टॉफी के भाइयों संग बाँट कर वो खाती।
मैं बन जाऊंगी ताकत तुम्हारी ,भाई तुम भी मेरी रक्षा करना ;
नाक चढ़ाकर जरा सी; वो यह रस्म भी प्यार से निभाती ।
है साथ तो फिर लड़ती और बिगड़ती
फिर याद कर ससुराल में उसी भाई को पलकें अपनी भिगोती ।
मां के बाद उसकी छाया कुछ ऐसी ममता लुटाती हां सही पहचाने हो वह बहन है कहलाती ।

खिलखिलाती वो , चहचहाती वो ना जाने कब बालिग़ हो जाती
अभी तो चलना सीख रहीं थी वो
अभी ही थामकर हाथ अपनें वर का
वो फिर विदा हो जाती ।
माँ -बाप , बहन - भाई सहेलियाँ सब पिछे छोड़ वो ; पती संग जग नया बसाती
कर समर्पण देह का अब पत्नी वो कहलाती ।

पत्नी बनकर सन्मान है पाया,
हाँ पर साल दो साल में मुँह न मिठा करवाया ।
बैरी जग को क्या समझाती,
औरत होकर सास भी जब निकट न आती;
सौभाग्यवती का अलंकार पहनकर वो फिर अभागन क्यूँ कहलाती? हाँ दुनिया उसे अब बाँझ बुलाती ।

कमज़ोर हुई है ज़रा
ठिक से उठ़ - बैठ़, सो न पाती है ।
कुछ खाने को जी ललचायें ,
क्या खाएं यही समझ न पाती है ।
सास नामक स्त्री जब,
"बेटा ही हो पहली संतान " कह जाती है ;
दिल में सिसकी लेते
वो लबों से कुछ कह ना पाती है ।
गुज़र जाये जब नौ माह
त्वचा पर कोमल उसकी
दाग हमेशा के ले जाती है ।
हाँ ऐ दुनिया वालों
सुडौल शरीर खो कर अपना पती को पिता बनाती है ।
भंग कर कौमार्य अपना एक स्त्री माँ बन जाती ।

पहचान गयें होंगे अब तक हूँ कौन मे जान गयें हो । फिर भी कह दूँ एक बार मुझे स्त्री कहते है। हाँ वही स्त्री जिसे आप कहते हैं अकल कोई नहीं इसमें ।
क्या इस संसार में स्त्रियों का कुछ भाग नहीं ? हो सकता है ये सच ही हो ; क्यू के जिम्मेदारियाँ छोड़ स्त्री कभी भागी नहीं । खैर भागी हुई स्त्रियों को बदचलन कहते है । घरों को छोड़ कर स्त्री कब संत कहलायीं है । सती बनीं स्त्री सदियों से पुजी जाती । ऐसी पुजा का क्या करना जब जान ही न बच पाती ।
डरते डरते जीती है , डरती फिर घर से निकलती ।
" संभल कर जाना" भाई - बाबा कहते है ,
गुज़रती जब रास्ते से तो एक नज़र उसे तकती है ।
बच बच कर चलते हुए नज़रो को चुराते वो जब थकती है ;
नज़र उठ़ा कर के जब वो एक पुरुष को देखती है ,
पुरुष रूपी श्वान की नज़र भेदती उसके हर अंग को है ;
" नज़रे अपनी झुका कर रखना स्त्री जब रास्ते से दिखती है" शायद माँ और बहन उनकी ये कहना भूलती है !
चलो थोड़ा हम भी जीते हैं , अपनी पहचान ज़रा सी इस जगत में बुनते हैं ।

ऐ स्त्रियों अपनी पहचान कायम रखना,
झुकी हुई नज़रो मे कुछ ख्वाँब दायम रखना ।
रोके कोई तुम्हे मर्यादा मे रहने पर भी ,
अपनी पहचान की तुम सदैव ही रक्षा करना । अपनी पहचान की तुम सदैव ही रक्षा करना ।

रचयिता - अहाना कौसर