भाग ७७
साँप अभी भी अपने सर्प रूप में, मुर्गियों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली बाँस की टोकरी में बंद था। टोकरी का मुँह बाँध दिया गया था। अब उसके लिए बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। उसकी एक आँख पहले ही बंद हो चुकी थी, जिससे दर्द और अपमान और भी गहरा हो गया था। वह अंदर से ज़ोर-ज़ोर से फुफकार रहा था, लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा था।
राजवीर और बलदेव टोकरी उठाकर गाँव के एक अँधेरे कमरे में ले गए। इस कमरे में पहले गाँव की सुरक्षा सामग्री रखी जाती थी, जो मज़बूत पत्थर की दीवारों और लोहे के दरवाज़े से घिरा हुआ था। किसी का भी इस कमरे से बचकर निकलना नामुमकिन था। उन्होंने टोकरी को एक भारी लोहे के बक्से के नीचे रख दिया और दरवाज़ा बंद कर दिया।
"अब वह यहाँ से नहीं भाग पाएगी," बलदेव ने कहा।
राजवीर ने सिर हिलाया, लेकिन वह अभी भी सोच में डूबा हुआ था।
"हम उसे कब तक ऐसे ही बंद रख सकते हैं? वह एक पिशाच है, लेकिन एक जादूगरनी भी है। हमें उसे वश में करके अपनी ओर मोड़ना होगा। अगर उसे लगेगा कि हम उसका पक्ष ले रहे हैं, तो वह सहस्त्रपाणि के पास जाने का विचार छोड़ देगी।"
राजवीर ने सिर हिलाया, लेकिन उसके विचार तेज़ी से घूम रहे थे। सर्पकला सिर्फ़ एक पिशाच नहीं थी, वह एक शक्तिशाली जादूगरनी भी थी। उसे सिर्फ़ एक बंद कमरे में बंद करके नहीं रखा जा सकता था। वह जादू की शक्ति से किसी भी क्षण बाहर निकल सकती थी। उसने कमरे की ओर देखा। लोहे के दरवाज़े और मोटी दीवारों के बावजूद, वह जानता था कि ये सिर्फ़ भौतिक बाधाएँ हैं। सर्पकला जैसी औरत ऐसे ही नहीं चुप रहेगी।
"हम उसे कब तक ऐसे ही बंद रख सकते हैं?" उसने मन ही मन सोचा। "वह एक जादूगरनी है। अगर उसे लगता है कि उसका रास्ता बंद हो गया है, तो वह ज़रूर कोई और रास्ता निकाल लेगी। हमें उसे अपनी तरफ़ मोड़ना होगा। हमें उसे समझाना होगा कि वह जो न्याय चाहती है, वह सहस्रपाणि नहीं देंगे, वह सिर्फ़ उसका मोहरा बनकर रह जाएगी।"
राजवीर ने कमरे की छोटी सी खिड़की से झाँका। टोकरी के अंदर से अभी भी साँप की फुफकार सुनाई दे रही थी। वह बेचैन थी। जिस औरत ने अपनी खूबसूरती और जादू से कई लोगों को मोहित किया था, वह अब एक साधारण बाँस की टोकरी में बंद थी। इससे उसकी जान जा रही थी। राजवीर ने खिड़की बंद कर ली।
बलदेव ने उसके कंधे पर हाथ रखा। "राजवीर, यह औरत सिर्फ़ एक ज़हरीली पिशाची नहीं है। इसकी निगाहें, इसकी खूबसूरती, इसकी कोमल भाषा, सब कुछ ख़तरनाक है। यह तुम्हें लुभाने की कोशिश करेगी।"
राजवीर मुस्कुराया। "मुझे पता है, लेकिन यह एक खेल है, बलदेव। अगर उसे लगेगा कि हम उसका पक्ष ले रहे हैं, तो वह सहस्त्रपाणि के पास जाने का विचार त्याग देगी। उसके अहंकार को ठेस पहुँची है। अगर मैं उसे यह सोचने दूँ कि मैं उसके लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति ढूँढ सकता हूँ, तो शायद वह अपना रास्ता बदल ले।"
बलदेव ने माथे पर शिकन लिए उसकी बात सुनी।
"तुम उसे सीधे मना तो नहीं करोगे, लेकिन क्या तुम उसके मन में भ्रम पैदा कर पाओगे ?"
"हाँ," राजवीर ने कहा, "और तब तक हम सहस्त्रपाणि पर आक्रमण की तैयारी कर लेंगे।"
दोनों सोच रहे थे। यह एक खतरनाक योजना थी, क्योंकि अगर सर्पकला को उनकी योजना की भनक लग गई, तो वह उन्हें नष्ट करने के लिए कोई और कपटी योजना ज़रूर बना लेगी। लेकिन उनके पास और कोई विकल्प नहीं था।
लेकिन उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि उस कमरे में टोकरी के अंदर चुपचाप बैठी सर्पकला पहले से ही कोई और योजना बना रही थी।
सर्पकला टोकरी में चुपचाप बैठी थी। अब चिल्लाने का कोई फायदा नहीं था। वह चुपचाप सोच रही थी। इस अवस्था से बाहर निकलने के लिए उसे अपने जादू का इस्तेमाल करना होगा।
सर्पकलाने अपनी आँखें बंद कर लीं और अपनी आंतरिक शक्ति का आह्वान किया। वह एक गहरे मौन में चली गई, मानो वह कोई ध्यान कर रही हो। उसका शरीर धीरे-धीरे कंपन करने लगा और धीरे-धीरे उसका आकार कम होने लगा। उसकी लंबी सर्प जैसी मुद्रा एक नया आकार लेने लगी। उसकी त्वचा सिकुड़ गई, उसकी हड्डियाँ अनायास ही सिकुड़ रही थी, और एक पल में वह चींटी के आकार की हो गई।
इस अवस्था में, उसकी हरकतें बहुत सूक्ष्म हो गईं। वह बहुत सावधानी से आगे बढ़ी। बाँस की टोकरी में छोटे-छोटे छेदों को देखते हुए, उसे सही जगह मिल गई। अब वह बहुत हल्की हरकतों के साथ आगे बढ़ी। उस संकरे छेद से बाहर निकलने से पहले वह एक पल के लिए रुकी, क्योंकि अगर किसी ने उसे चौकस निगाहों से देख लिया होता, तो उसकी योजना नाकाम हो जाती। लेकिन सौभाग्य से, बाहर कोई पहरा नहीं दे रहा था।
उसने मौके का फ़ायदा उठाया और उस छेद से बाहर निकल आई, बिल्कुल अकेली। बाहर आते ही, वह कुछ देर तक स्थिर खड़ी रही, अपने आस-पास के माहौल को निहारती रही। कमरे के कोनों में परछाइयाँ खेल रही थीं, और धुंधली रोशनी में सब कुछ शांत लग रहा था। लेकिन वह जानती थी कि यह शांति अस्थायी थी। अब एक और बाधा पार करनी थी, उसे इस बंद कमरे से बाहर निकलना।
अब वह ज़मीन पर आगे बढ़ी। उसकी नज़र दरवाज़े के नीचे की दरार पर पड़ी। चूँकि वह बहुत छोटी थी, इसलिए वह जगह उसके लिए काफ़ी बड़ी थी। बिना मौका गँवाए, वह दरार से बाहर निकलने के लिए दौड़ी। उसका छोटा सा शरीर उस संकरी जगह से आसानी से बाहर निकलने लगा। लेकिन जैसे ही वह जा रही थी, उसे बाहर से किसी के कदमों की आहट सुनाई दी।
सर्पाकला रुक गयी । उसकी साँसें बहुत धीमी हो गईं। वह अभी भी दरार में आधी फँसी हुई थी, लेकिन वह जानती थी कि अगर उसने ज़रा सी भी हरकत की, तो कोई देख सकता है। वह उस पल का इंतज़ार कर रही थी जब वह पूरी तरह से सुरक्षित बाहर निकल सके।
बाहर की परछाइयाँ हिलने लगीं, कदमों की आहट नज़दीक आने लगी और सर्पाकला के दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। लेकिन उसके कदम एक पल के लिए रुके और फिर चलने लगी। यही सही समय था। वह जल्दी से दरार से बाहर निकली और गहरी साँस ली।
उसने आसमान की तरफ़ देखा, वह खुली हवा में आ गई थी। अब उसे गाँव से भी भागना था। चींटी के रूप में वह बहुत धीरे-धीरे चल रही थी, और कुचले जाने का ख़तरा था, इसलिए उसने इधर-उधर देखा और एक पेड़ के नीचे चली गई, अब वह फिर से रूप बदलने लगी, इस बार वह एक छोटे नेवले के रूप में आई और घास में समा गई।
गाँव वालों को कुछ समझ नहीं आया। बिना कोई आवाज़ किए वह अँधेरे में गायब हो गई। अब वह पूरी तरह आज़ाद थी।
सुबह होते ही राजवीर और बलदेव उस कमरे में गए।
“आज हम उसे अपनी तरफ़ मोड़ने की कोशिश करेंगे,” बलदेव ने कहा।
राजवीर ने दरवाज़ा खोला और अंदर झाँका। लेकिन अंदर का नज़ारा देखकर वह वहीं का वहीं रह गया। टोकरी के नीचे कोई सपेरा नहीं था।
"वह यहाँ नहीं है!" राजवीर चिल्लाया।
बलदेव ने जल्दी से इधर-उधर देखा, लेकिन सर्पकला कहीं नहीं दिखी।
"यह कैसे हो सकता है? यह कमरा तो पूरी तरह से बंद था!"
राजवीर का चेहरा काला पड़ गया। "वह दरार से बाहर आ गई होगी... शायद रूप बदलकर।"
"तो अब वह आज़ाद है?" बलदेव की आवाज़ बेचैन थी।
"हाँ," राजवीर ने कहा, "और अब वह सहस्त्रपाणि के पास जाएगी..."
दोनों ने एक-दूसरे को देखा और चुप हो गए। सर्पाकला की रिहाई सहस्त्रपाणि के लिए एक बड़ा वरदान थी। अगर वह उसे सब कुछ बता देती, तो वे मिलकर फिर से बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकते थे।
"हमें उसे पकड़ना होगा," बलदेव ने कहा।
"अब बहुत देर हो चुकी है," राजवीर ने जवाब दिया। "वह अब तक जंगल पहुँच चुकी होगी।"
क्रमशः
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