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रक्तपिशाच का रक्तमणि ८७

एक रक्तपिशाच और मानव कन्या की प्रेम कहानी
भाग ८७

गाँव में भयानक सन्नाटा अब भी वैसा ही था। हालाँकि भोर हो चुकी थी, आसमान अँधेरे से भरा था, दूर कहीं चमगादड़ अपने पेडो की ओर लौट रहे थे। आँगन में बरगद के पेड़ के पत्तों पर हवा फुसफुसा रही थी, मानो वे भी युद्ध की चर्चा कर रहे हों। मशालों की मंद रोशनी ज़मीन पर नाच रही थी, उनकी टिमटिमाती परछाइयाँ तीनों योद्धाओं के चेहरों को बीच बीच में अदृश्य बना रही थीं। हालाँकि उन्होंने यह युद्ध जीत लिया था, फिर भी सभी को लग रहा था कि कुछ अधूरा रह गया है।

बलदेव, राजवीर और आशय चुप थे। कुछ समय मौन में ही बीत गया। सबके मन में विचारों का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। राजवीर की आँखों के सामने वज्रदंत का क्रूर चेहरा और उसका प्रहार अभी भी नाच रहा था। युद्ध समाप्त होने के बावजूद, उनके मन में अनेक विचारों का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। बलदेव के मन में भी एक प्रश्न था, क्या यह सचमुच समाप्त हो गया था? और आशय... उसके चेहरे पर एक अलग ही रहस्यमयी परछाई थी। उसने जो देखा था, जो उसने समझा था, वह अभी तक किसी को समझ नहीं आया था।

राजवीर ने आशय की ओर देखा और संतुष्टि की गहरी साँस ली। उसके चेहरे पर थकान थी, लेकिन उससे भी ज़्यादा, कृतज्ञता थी। उसने धीमी आवाज़ में कहा,

"आशय, तुम समय पर पहुँच गए। अगर तुम न आते, तो हम कुछ भी नहीं होते। उसकी अपार शक्ति के सामने हम ज़िंदा नहीं रह पाते। लेकिन तुम्हारी वजह से ही आज हम सब ज़िंदा हैं।" उसकी आँखों में सच्ची कृतज्ञता झलक रही थी।

बलदेव ने भी अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं। उसने आशय के कंधे पर हाथ रखा और कहा,

"सच में आशय। हम तुम्हारे साहस और समय पर की गई मदद का बदला कैसे चुका सकते हैं? तुम्हारे बिना यह संभव नहीं होता। तुम्हारी तैयारी, तुम्हारा साहस और तुम्हारी समय पर की गई कार्रवाई, ये सब ही हैं जिनकी वजह से हम आज यहाँ ज़िंदा हैं।"

उसके शब्दों में सिर्फ़ कृतज्ञता ही नहीं, बल्कि एक अजीब सा सम्मान भी था। हालाँकि, आशय उसकी बात सुनकर थोड़ा मुस्कुराया और हाथ हिलाया।

"कृतज्ञता की बात मत करो। मैंने जो किया वह तो बस एक कर्तव्य था। और मैं तो बस एक साधन था। असली जीत तो उस दृढ़ इच्छाशक्ति की है जिसके साथ तुमने इतनी कड़ी टक्कर दी। लेकिन परीक्षा अभी खत्म नहीं हुई है... अभी भी कुछ अनुत्तरित प्रश्न हैं। अगर मैं न भी आता, तो भी वज्रदंत आर्या को कुछ नहीं कर पाता।"

राजवीर और बलदेव दोनों चमक उठे। बलदेव ने आशय की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा और पूछा,

"क्या मतलब है तुम्हारा? अगर तुम न भी होते, तो भी हम बच जाते?"

आशय ने गहरी मुस्कान के साथ उत्तर दिया, "हाँ। और उसकी वजह आर्या है।"

बलदेव और राजवीर अभी भी उलझन में थे।

इस बीच, आर्या घर के एक कोने में चुपचाप बैठी थी, लेकिन उसके विचार उलझे हुए थे। सर्पकला के शरीर के पिघलने का वह भयानक क्षण अभी भी उसकी आँखों के सामने घूम रहा था। उसने जो कुछ अनुभव किया था, उसे लगता था कि किसी भी साधारण महिला के जीवन में ऐसा कभी नहीं होना चाहिए।

वह एक साधारण परिवार में पली-बढ़ी, एक साधारण जीवन जी रही एक महिला थी। लेकिन अब? अंधेरा, डर, खून और असंभव जादुई चीजें उसके चारों ओर खड़ी थीं। वह युद्ध देख रही थी, राक्षसों से लड़ रही थी, और उससे भी ज़्यादा भयानक रूप से, उसके अपने शरीर में एक अनजानी शक्ति पनप रही थी।

उसने एक गहरी साँस ली। वह डरी हुई थी, लेकिन साथ ही उसे एक अलग तरह का एहसास भी हुआ, उसके अंदर कुछ बदल रहा था। उसके गर्भ में पल रहा यह जीवन आखिर कौन था? क्या यह एक साधारण बच्चा था या कोई शक्तिशाली योद्धा जो इस दुनिया को बचाने वाला था? या यह एक और विनाश की शुरुआत थी?

आर्या ने कितनी भी कोशिश की, उसके मन में उठ रहे विचारों के जवाब उसे नहीं मिल पा रहे थे। वह खुद से कह रही थी कि अभी भी समय बिता नहीं , सब कुछ अभी भी सामान्य हो सकता है... लेकिन कहीं उसके मन में, उसे लग रहा था, नियति ने उसे एक अलग रास्ते पर डाल दिया था, जहाँ से वापस लौटना अब असंभव था।

उसके मन में शक का एक कीड़ा गहराई से बुलबुला रहा था। इस दुनिया में इतनी अजीबोगरीब घटनाएँ घट रही थीं, तो ज़ाहिर था कि उसके गर्भ में पल रहा जीवन भी कुछ अलग ही था। लेकिन आख़िर वो क्या था? यही ख़याल उसे परेशान कर रहा था। क्या वो सिर्फ़ उसका बच्चा था, या कोई अनोखी चीज़, कोई अकल्पनीय शक्ति? क्या हो अगर वो किसी विनाशकारी शक्ति का उत्तराधिकारी हो?

क्या हो अगर उसका जन्म इस दुनिया में कोई नया संकट ले आए? या वो एक रोशनी की किरण बन जाए जो इस सारे अँधेरे को मिटा दे? इन सारे सवालों का बोझ उसके मन पर छा गया था। वो खुद को यकीन दिला रही थी कि उसके कोक में पल रहा वोह एक साधारण बच्चा है, उसके और राजवीर के प्यार का प्रतीक, लेकिन उसके दिल के एक कोने में अभी भी एक अनजान सा डर था।

उसके विचार उमड़ते रहे, लेकिन आख़िरकार उसके थके हुए शरीर ने हार मान ली। उसके सिर का बोझ और भारी होता गया, उसकी पलकें झुकने लगीं, और वो अनजाने में ही उन विचारों की गहराई में सो गई। उसके चेहरे पर शांति थी, लेकिन उसके मन के भीतर बेचैनी के तूफ़ान उठ रहे थे।

आशय धीरे-धीरे घर में दाखिल हुआ। दीये की मंद रोशनी में उसने आर्या को देखा। उसका चेहरा शांत लग रहा था, लेकिन उसका मन जानता था कि उसके मन में विचारों का तूफ़ान उमड़ रहा होगा। उसने जो कुछ देखा और भोगा था, वह किसी साधारण स्त्री का भाग्य नहीं था। अपने गर्भ में पल रहे जीवन का रहस्य उसे कचोट रहा था, और वह इन सवालों के जवाब ढूँढ़ना चाहती थी। लेकिन इस समय, वह सो रही थी, शांत, सभी उलझनों से मुक्त। आशय एक पल के लिए उसके शांत चेहरे को देखता रहा। उसने आह भरी। कम से कम अभी तो, वह सो रही थी।

वह पीछे मुड़ा और धीरे-धीरे बाहर चला गया, बिना किसी पदचाप के। उसके मन को अब बस एक ही राहत थी, आर्या सो गई थी, जिसका मतलब था कि अब वह राजवीर और बलदेव के सामने निश्चिंत होकर बोल सकेगा। यह चर्चा बहुत ज़रूरी थी, क्योंकि यह लड़ाई भले ही खत्म हो गई थी, लेकिन खतरा अभी टला नहीं था। उसने घर का दरवाज़ा खोला और राजवीर और बलदेव के सामने बरगद के पेड़ के नीचे आँगन में बैठ गया। अब उसे अपने मन का सच बताना था।

बाहर आकर उसने गंभीर स्वर में कहना शुरू किया, "अगर मैं समय पर न आता, तो वज्रदंत आर्या का कुछ नहीं बिगाड़ पाता। क्योंकि तुम्हें तो पता ही होगा, है ना? आर्या की बात सुनकर सर्पकला उस पर वार करने गई और वह मोम की तरह पिघल गई।"

आर्या के शब्द बलदेव के दिमाग में फिर कौंध गए।

"हाँ, लेकिन इसका इन सब से क्या लेना-देना है?"

आशय एक पल रुका और फिर साफ़-साफ़ बोला, "क्योंकि आर्या के गर्भ में जो जीवन है, वह अब सिर्फ़ एक भ्रूण नहीं है। यह किसी महाशक्ति का परिणाम है। यह खुद को और अपनी माँ को सुरक्षित रख सकता है। हालाँकि, यह अभी तय नहीं है कि यह शक्ति किस दिशा में जाएगी। यह इस दुनिया का रक्षक बनेगी या संहारक, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।"

राजवीर चुप था। उसके मन में बस एक ही विचार घूम रहा था—उसका बच्चा! उसने दृढ़ता से उत्तर दिया, "उसके विध्वंसक होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। वह मेरा पुत्र है, आर्या का पुत्र। उसका रक्त हमारे प्रेम जितना ही पवित्र है। वह इस सृष्टि का विनाश नहीं करेगा!"

आशय रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया।

"यह तो समय ही बताएगा, राजवीर।"

उसी समय, दूर सहस्त्रपाणि के किले में माहौल तनावपूर्ण था। चारों ओर इकट्ठे सैनिक काँप रहे थे। उनके सामने सहस्त्रपाणि अपने सिंहासन पर विराजमान था, लेकिन आज उसके चेहरे पर संतुष्टि नहीं थी, केवल क्रोध और बेचैनी थी।

उसने अपने सामने खड़े एक सैनिक की ओर देखा और कहा, "मेरे आदेशानुसार जाओ और 'महाभूषण' को यहाँ ले आओ!"

उसका नाम सुनकर सैनिक आश्चर्य से एक-दूसरे को देखने लगे। सहस्त्रपाणि ने क्रोध से अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं और फिर चिल्लाया,

"जल्दी करो! तुम्हें पता है, वह यहाँ कभी अपने आप नहीं आएगा। अगर वह तुम्हारी बात नहीं मानता, तो उसे ज़िंदा, उसके पैरों में ज़ंजीरों में बाँधकर यहाँ ले आओ!"

क्रमशः

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