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रक्तपिशाच का रक्तमणि १०१

एक रक्तपिशाच और मानव कन्या की प्रेम कहानी
भाग १०१

आर्या की आखिरी साँसें साफ़ सुनाई दे रही थीं। उसकी आँखों से बहते आँसू अब उसके लिए नहीं, बल्कि उसके बच्चे के लिए थे। राजवीर ने उसका हाथ कसकर पकड़ रखा था, लेकिन उसके स्पर्श ने भी उसके जाने के सफ़र को नहीं रोका। वह आँखों से कुछ कह रही थी, शायद एक आखिरी गुज़ारिश।

"हमारे बच्चे का ख्याल रखना।"

उसी पल, आर्या के मुँह से एक लंबी, दर्दनाक सिसकी निकली और पल भर में उसकी साँसें धीमी पड़ने लगीं। उसके स्पर्श से उसकी नब्ज़ धीमी पड़ रही थी, मानो जीवन की डोर धीरे-धीरे छूट रही हो। राजवीर की आँखों के सामने एक धुंधली रोशनी फैल गई। इस सारी आपाधापी में, इतनी सारी लड़ाइयाँ जीतने के बाद भी, वह इस एक औरत को, जो उसके जीवन का केंद्र थी नहीं बचा पा रहा था, यह सच्चाई सचमुच उसके दिल को चीर गई।

वह चुपचाप उसके बगल में घुटनों के बल बैठ गया, हालाँकि उसका दिल धड़कना बंद हो गया था, फिर भी उसके दिल में उम्मीद की एक बेबस किरण बाकी थी। उसने धीरे से अपना सिर आर्या की छाती पर टिका दिया, यह देखने के लिए कि वह साँस ले रही है या नहीं।

लेकिन उसका शरीर अब ठंडा पड़ने लगा था, ताज़े फुलोसे अचानक ठंडक आने लगे इस तरह उसके पूरे शरीर में ठंड फैल गई थी। उसके होठों का नीलापन और आँखों के नीचे की गहरी परछाइयाँ चिंता की गंभीर अभिव्यक्ति लेने लगी थीं। राजवीर की साँसें अब उखड़ रही थीं और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे थे, जिन्हें उसने पहले कभी बहने नहीं दिया था। उसने जीवन के हर युद्धक्षेत्र में युद्ध लड़ा था, लेकिन इस एक क्षण में वह पूरी तरह से पराजित हो गया था। आर्या उसके हाथों से छूटते ही, वह बस एक ही बात कहता रहा।

“नहीं… आर्या, एक मिनट रुको… मैं यहीं हूँ…”

जैसे ही बलदेव के कदमों की आहट घर की पत्थर की दीवारों पर गूँजी, आसपास का माहौल क्षण भर के लिए स्तब्ध रह गया। उसके चेहरे पर एक अजीब सी दरार और एक गहरी उदासी साफ़ दिखाई दे रही थी। उसने अपनी आँखों से सारी यात्रा का भार व्यक्त किया और सीधे महाभूषण के सामने रुक गया। उसका चेहरा थकान और चिंता से ढँका हुआ था। वह एक पल के लिए स्थिर खड़ा रहा, मानो वह अपने आप को संभाल रहा हो। फिर उसने एक गहरी साँस ली और आँसुओं से भरी, काँपती आवाज़ में फुसफुसाया,

"क्या तुम कुछ कर सकते हो? कुछ?"

उस पल महाभूषण की आँखों में जो भाव चमक रहा था, वह ऐसा था जैसे किसी त्रिकाल जाननेवाला व्यक्ति दिखाई देता हो। दया, समझदारी और अपरिहार्यता का प्रबल भाव उसके चेहरेपर साफ दिख रहा था। उसने बलदेव की ओर देखा, लेकिन उसका उत्तर तुरंत नहीं आया। क्योंकि यह उत्तर किसी जादू-टोने से नहीं मिल सकता था। यह दुःख उस पिता के दुःख जैसा था , जिन यादों को उसने अपनी सारी आशाओं और जीवन से भी ज़्यादा संजोया था उसे खतरे में देखकर टूट गया हो। उसी क्षण महाभूषण ने बलदेव के कंधे पर हाथ रखा। उस एक स्पर्श से, उन्होंने उसे एहसास दिलाया कि वह इस समय विवश है।

महाभूषण ने एक बार फिर अपनी आँखें बंद कर लीं और एक लंबी साँस छोड़ी।

"बहुत देर हो चुकी है, बलदेव। अब उसे वापस ज़िंदा करना मेरे बस से बाहर है..."

उन शब्दों ने राजवीर के अंतर्मन को झकझोर दिया। उसके सीने में अचानक एक अजीब सा खालीपन छा गया, मानो पूरी दुनिया का केंद्र टूट गया हो। उसका दिल दर्द से चीख रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी, उतनी ही भयावह। हृदय विदारक पीड़ा के उस क्षण में, एक अजीब लेकिन दृढ़ विचार उसके दिमाग में गहराई से उतर गया।

"अगर वह सचमुच मरने वाली है, तो मैं उसे ज़िंदा करूँगा... किसी भी कीमत पर!" उसने एक कठोर निर्णय लिया।

उसकी आँखें अब उदासी से नहीं, बल्कि एक प्रबल संकल्प से भरी थीं। यह सिर्फ़ प्रेम नहीं था, यह एक ऐसी पागल इच्छा थी जो नियति को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर सकती थी। उसने एक कठोर निर्णय लिया, समय के गर्भ में वापस जाकर आर्या को मृत्यु के कगार से वापस खींच लाने का। चाहे कुछ भी हो, यह युद्ध अब सिर्फ़ सहस्त्रपाणि के विरुद्ध नहीं, बल्कि उसके अपने भाग्य के विरुद्ध था, और राजवीर उस भाग्य के गले पर अपनी तलवार चलाने के लिए दृढ़ था।

वह धीरे से उसके चेहरे के पास गया, उसकी गर्दन अपने हाथों में ले ली। उसकी आँखों में एक अलग ही चमक थी, प्रेम की नहीं, बल्कि एक श्राप की। वह सदियों से जो कष्ट झेल रहा था, अब वह आर्या को भी वही देना चाहता था  ”पिशाचत्व का अभिशाप”।

वह उसके चेहरे के और पास झुक गया, उसकी हरकतें अजीब तरह से स्थिर थीं, मानो समय ही धीमे कदमों से आगे बढ़ रहा हो। उसने उसका चेहरा अपने हाथों में लिया, लेकिन उस स्पर्श में कोई कोमलता नहीं थी; वह ठंडा था, मौत जैसा। उसकी आँखों में प्रेम की कोई रोशनी नहीं थी, एक अँधेरा था, सदियों के दर्द, चीखों और लालसाओं का अँधेरा। उसके दिल में एक अमानवीय इच्छा धधक रही थी कि जो उसने हज़ारों सालों से अपने लिए सहा था, उसे किसी और की आत्मा में मिला दे ने की।

वह अभिशप्त था, पिशाच-जाति की क्रूरता से टूटा हुआ था, और अब आर्या उसके अपने अभिशाप का नया केंद्र बनने वाली थी। आर्या की भौंहें थोड़ी हिलीं, लेकिन उसके चेहरे पर अभी भी मासूमियत की एक परछाई थी। लेकिन राजवीर के मन में बस एक ही विचार गूंज रहा था, वह नहीं चाहता था कि आर्या उसे छोड़ कर जाए, वह चाहता था कि आर्या उसके साथ ही रहे। यह बदले की भावना नहीं थी, यह समय की भयानक योजनाओं की शुरुआत थी।

आशय और बलदेव दोनों एक पल के लिए स्तब्ध रह गए। राजवीर की आँखों में उस पल जो ज्वाला भड़की थी, वह असीम लग रही थी। उसके हाथों की ऊर्जा काँप रही थी, और एक अलग, घातक शक्ति उसके पूरे शरीर में प्रवाहित हो रही थी।

“नहीं राजवीर! रुको! यह सही रास्ता नहीं है!” आशय ज़ोर से चिल्लाया और आगे बढ़ा। उसकी आवाज़ में डर नहीं, बल्कि चिंता थी, कि उसके दोस्त के हाथों कुछ अनहोनी हो जाएगी। बलदेव भी पीछे नहीं था।

“क्या तुम उसकी रक्षा ऐसे ही करोगे?” उसने गुस्से से पूछा और पल भर में राजवीर के पास पहुँच गया। लेकिन राजवीर अब किसी और ही चेतना में था। उसने पलटकर दोनों को ज़ोर से पीछे फेंका। उनके शरीर ज़मीन से सीधे टकराने की आवाज़ आई।

एक पल के लिए, वातावरण में गड़गड़ाहट हुई, मानो प्रकृति स्वयं इस क्रिया पर प्रतिक्रिया कर रही हो। राजवीर सीधा खड़ा हो गया, उसकी साँसें तेज़ हो गईं, और उसके माथे पर दर्द, संघर्ष और वेदना का मिश्रण साफ़ दिखाई दे रहा था। उसके चेहरे पर एक ही सवाल था।

"क्या मैं जो कर रहा हूँ वो ग़लत है? बिल्कुल नहीं," उसने मन ही मन दोहराया।

फिर उसने अपने नुकीले दाँत आर्या की गर्दन में गड़ा दिए। एक पल के लिए वह हिली नहीं, उसने अपनी गर्दन नीचे कर ली, लेकिन फिर उसके शरीर से एक लहर उठी। आसमान में तूफ़ान उठा, बिजली चमकने लगी। उसके चारों ओर अँधेरे के घेरे बन गए।

और कुछ ही पलों में आर्या फिर से खड़ी हो गई। उसकी आँखें अब इंसानी नहीं, बल्कि किसी पिशाच के काले रोशनी जैसे थीं। उसके दाँत अब तीखे हो गए थे, उसकी आँखें लाल चमक रही थीं, उसके शरीर की रेखाएँ काले शल्कों जैसी दिखने लगी थीं।

अगले ही पल उसने राजवीर को गले लगा लिया, उस आलिंगन में गहरा प्यार था। लेकिन एक पल में उसका ध्यान अपने बच्चे पर गया। वह कमरे के बाहर दाई के साथ था। दाई अपने सामने के दृश्य को देखकर डर गई और बच्चे को गोद से निचे रखकर भागने लगी।

उस पल, आर्या की आँखों में मानवीय भावनाओं का कोई निशान नहीं बचा था, सिर्फ़ असहनीय प्यास, बेचैन ऊर्जा, और उसके भीतर गतिमान एक अबूझ शक्ति का अपार जुनून सवार था। उसका शरीर अब एक अलग ही शक्ति से संचालित हो रहा था। मानो कोई और उसके अंदर बातें कर रहा हो।

वह उठी और दौड़कर दाई को पकड़ लिया। उसने अपने दांत उसकी गर्दन पर रख दिए और उससे निकल रहे मीठे खून को पीने लगी। उसके होठों से बहता खून उसके मुँह को एक अलग ही चमक दे रहा था, और उसके हाथों के पंजे अब किसी शिकारी के पंजे की तरह सख्त हो गए थे।

आशयने उसे कठोरता से पुकारा।

"आर्या! यह तुम नहीं हो। रुको! हम जानते हैं, तुम ऐसी नहीं हो!" लेकिन उसके शब्दों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। बलदेव ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया, लेकिन स्पर्श से वह एक पल के लिए सिहर उठी। उसके चेहरे पर एक द्वंद्व साफ़ दिखाई दे रहा था, पलभर वह भयानक वासना में डूबी, अगले ही पल उसकी आँखों में लालसा की एक परछाईं कौंध गई, मानो उसके भीतर की सच्ची आर्या कुछ पलों के लिए जाग उठी हो। लेकिन वह पल भी क्षणभंगुर था। उस नई शक्ति ने उसके मन पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया था, और वह शक्ति सिर्फ़ अपनी प्यास बुझाने के लिए जीती थी, रक्त की प्यास, शक्ति की प्यास... और उस प्यास के आगे, प्रेम की कोई भी पुकार, कोई भी आवाज़ उसे कमज़ोर लगती थी।

दाई रक्तहीन हो गई और उसकी लाश ज़मीन पर गिर पड़ी। आर्या ने अपना सिर उठाया, उसके होठों पर अभी भी खून था... और उसकी आँखों में शांति थी।

क्रमशः


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