भाग १०४
सहस्त्रपाणि जब सिंहासन पर बैठा था, तभी उसका विश्वसनीय जासूस एक संदेश लेकर दौड़ता हुआ आया। उसके चेहरे पर पसीने की बूँदें थीं और उसकी आँखों में डर साफ़ दिखाई दे रहा था।
"महाराज... आर्या बच गई है... और उसका बच्चा भी पैदा हो चुका है," उसने फुसफुसाते हुए कहा। एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। सहस्त्रपाणि की आँखें अंगारों की तरह लाल हो गईं, उसका चेहरा गुस्से से काँपने लगा।
"इसका मतलब मैने खुद मारने के बाद भी वह नहीं मरी?" उसने सिंहासन से उठते हुए गुर्राते हुए पूछा। उस समय, उसके मन में बस एक ही विचार कौंध रहा था, यह सब हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहिए था।
"रक्तमणि अब मेरे कब्ज़े में है," उसने मन ही मन बुदबुदाया।
"इस तरह, अब किसी की भी ताकत मेरी ताकत के बराबर नहीं होगी।" उसने तुरंत अपने सेनापति को बुलाने का आदेश दिया। कुछ ही क्षणों में, दरबार में एक कठोर और अनुशासित चेहरा दिखाई दिया।
सहस्त्रपाणि के किले के विशाल दरबार में, शाम के गहरे और धुंधले रंग चमक रहे थे। मशालों की रोशनी में, सहस्त्रपाणि अपने सिंहासन पर बैठा था, जबकि उसका सेनापति, एक बलवान और कठोर चेहरे वाला योद्धा, उसके सामने खड़ा था, उसके हाव-भाव में कठोरता की झलक थी। दोनों के बीच की बातचीत जल्द ही पूरे गाँव के भाग्य का फैसला करने वाली थी।
सहस्त्रपाणि ने गंभीर स्वर में बात शुरू की।
"अब समय आ गया है। उस गाँव पर, जहाँ आर्या, राजवीर और उनके साथी रहते हैं, एक बार फिर हमला होना चाहिए। लेकिन इस बार, किसी की जान नहीं बचनी चाहिए। मैं उस गाँव, उन लोगों और उनके इतिहास का समूल नाश चाहता हूँ।"
सेनापति के चेहरे पर एक कठोर मुस्कान आ गई।
"महाराज, मैंने अपनी तलवार से कई राक्षसों की गर्दनें काट दी हैं। मैं जहाँ भी जाता हूँ, रक्त की धाराएँ बह जाती हैं। आपका आदेश तो बस एक संकेत है, अब उस गाँव का अस्तित्व सिर्फ इतिहास बन कर रह जाएगा।"
सहस्त्रपाणि ने अपने दोनों हाथ सिंहासन पर रखकर खड़े होकर कहा,
"इस बार मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। मैं उस बालक का अस्तित्व और उसका अंत अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ। अगर वह फिर मेरे हाथों से बच निकला, तो हमारी अन्धकारमय सृष्टि हमें माफ़ नहीं करेगी।"
सेनापति ने गर्व से सिर हिलाया।
"महाराज, आपका आगमन हमारी सेना के मनोबल में आग जगा देगा। हम शीघ्र ही युद्ध के लिए तैयार हो जाएँगे। अपने हज़ार सैनिकों, दस युद्ध रथों और अग्निबाणों के साथ, हम उस गाँव पर चढ़ाई करेंगे। कोई भी पशु, कोई भी शक्ति हमारे रास्ते में नहीं आ सकेगी!"
सहस्त्रपाणि ने उसकी आँखों में सीधे देखते हुए आदेश दिया।
"कल सूर्योदय से पहले सारी तैयारियाँ पूरी कर लो। यह युद्ध केवल गाँव के लिए नहीं है, यह इस संसार के भविष्य के लिए है।"
सेनापति ने दोनों हाथ अपनी छाती पर रखे और आदरपूर्वक सिर झुका लिया।
"आपका आदेश हमारे लिए काफी है। और आपका आदेश हमारा हथियार बन जाएगा। हम आगे बढ़ रहे हैं, विध्वंस करने के लिए। मैं अपनी नई और ज़्यादा शक्तिशाली सेना के साथ तुरंत निकल पड़ूँगा। इस बार, मैं किसी भी प्रतिरोध को इजाज़त नहीं दूँगा।"
सभा में फिर सन्नाटा छा गया। लेकिन उस सन्नाटे के नीचे युद्ध के उठते धुएँ की आवाज़ पहले से ही महसूस होने लगी थी।
किले पर ढोल बजने लगे। सेनापति ने अपनी नई सेना इकट्ठा की, वे नई थीं, लेकिन उनकी आँखों में आग थी। वह एक ऊँची चट्टान पर खड़ा होकर ज़ोर से गरजा,
"हे वीर योद्धाओं! अब समय आ गया है! तुम्हें अपने महाराज को गौरवान्वित करना होगा! जिस गाँव पर हम आगे बढ़ने वाले हैं, उसे राख में बदल देना होगा!"
घोड़ों की टापों और ढोल-नगाड़ों की ध्वनि से वातावरण तनाव से भर गया था। सहस्त्रपाणि स्वयं सबसे आगे था, उसके चेहरे पर हार का कोई भाव नहीं था। उसके पीछे एक विशाल सेना चल रही थी। सड़क पर धूल उड़ रही थी, और आकाश में काले बादल उमड़ रहे थे, मानो प्रकृति भी इस युद्ध की भयावहता की साक्षी हो।
लेकिन किसी को अंदाज़ा नहीं था कि यह आक्रमण सिर्फ़ एक गाँव का विनाश नहीं, बल्कि एक निर्णायक संघर्ष होगा जो पूरे ब्रह्मांड का भाग्य तय करेगा।
जंगल घना था, लेकिन उतना ही शांत भी। सहस्त्रपाणि और उनके सेनापति, अपने खूंखार सैनिकों के साथ, अनुशासित, घातक सन्नाटे में जंगल से गुज़र रहे थे। उनके जूतों की नीरस आवाज़ जंगल के हृदय को रौंदती हुई प्रतीत हो रही थी। हर हरी-भरी झाड़ी, हर ऊँची बेल, उनकी उपस्थिति से काँप रही थी। जंगल में प्रकृति का गीत, पक्षियों की चहचहाहट, कीड़ों की सरसराहट, या हिरणों के कोमल पदचाप, सब थम गए थे।
क्योंकि हज़ारों की सेना का रास्ता मौत का रास्ता बन गया था। उनके सामने आने वाला कोई भी जानवर पल भर में अपनी जान जोखिम में डाल देता। इसलिए, कोई भी जानवर उनके रास्ते में आने की सोच भी नहीं सकता था। तेंदुए, भालू, साँप, बंदर वे जहाँ थे वहीं छिपे बैठे थे। आकाश से उड़ते पक्षी भी उनके सिर के ऊपर से उड़ने के बजाय तिरछी दिशा में जा रहे थे। पेड़ों की डालियों पर बैठे कौवे भी चुप हो गए थे। ऐसा लग रहा था मानो पूरा जंगल इस हमले से बचने के लिए अपनी साँसें रोके हुए हो।
अचानक, गाँव के आकाश में पक्षियों का झुंड उमड़ पड़ा। अनगिनत रंग-बिरंगे पक्षी, कुछ जाने-पहचाने और कुछ बिलकुल अपरिचित—गाँव के पेड़ों पर, घरों की छतों पर और आँगन में उतरने लगे। उनकी आवाज़ों से पूरा इलाका गूंज उठा। गाँव वाले यह दृश्य देखकर चकित रह गए। ये पक्षी वही थे जो आमतौर पर घने जंगल में रहते थे और कभी भी गाँव के बाहरी इलाके में भी नहीं आते थे। लेकिन आज वे गाँव के ठीक बीचों-बीच आकर बैठ गए थे, मानो उन्हें किसी अनजान खतरे का आभास हो रहा हो। उनकी चहचहाहट के पीछे एक तरह की बेचैनी थी, भ्रम नहीं, बल्कि एक चेतावनी।
आशय ने अपने सामने का दृश्य देखकर पल भर में ही सब कुछ समझ लिया था, धुआँ गांव एमएम की ओर बढ़ रहा था, पक्षी बेवजह डर के मारे उड़ रहे थे, और दूर आसमान में एक अँधेरी परछाईं मंडरा रही थी। वह एक पल के लिए आसमान को देखता रहा। उसके मन में कुछ गहरे विचार चल रहे थे। अंत में, वह बुदबुदाया,
"ये निश्चित रूप से सहस्त्रपाणि के आगमन के संकेत हैं।" उसकी आवाज़ शांत थी, लेकिन उसके चेहरे पर चिंता की एक स्पष्ट छाया दिखाई दे रही थी। उसने बिना एक पल की देरी किए निर्णय लिया, पूरे गाँव को एक सुरक्षित स्थान पर, पहाड़ की पुरानी गुफाओं में पहुँचाना होगा। उसका हमेशा का शांत स्वभाव अब एक निर्णायक कदम ले रहा था।
गाँव में हलचल शुरू हो गई थी। लोग सामान भर रहे थे। बच्चों की किलकारियाँ, बूढ़ों की थकी साँसें और युवाओं के चेहरों पर तनाव साफ साफ दिख रहा था। ये सब मिलकर डर और साहस दोनों दरशा रहे थे। राजवीर, बलदेव और बाकी कुछ युवक आशय के आदेशानुसार आगे बढ़ रहे थे।
कुछ लोग पहले गुफाओं में जाकर तैयारी करने लगे थे। कुछ ने पानी के घड़े भर लिए थे, कुछ ने बोरों में अनाज भर लिया था। इस भागदौड़ में आशय का चेहरा अभी भी स्थिर था। संकट आ गया था, लेकिन उसकी आँखों में कोई डर नहीं था, यह दृढ़ एहसास था कि यह लड़ाई अब सिर्फ़ युद्धभूमि की नहीं, बल्कि सबके अंतर्मन की लड़ाई होगी।
गाँव में हर तरफ़ अव्यवस्था का माहौल था, लेकिन साथ ही एक तरह का सामूहिक साहस भी दिख रहा था। गाँव वाले बरसों से अपने घरों में रखी दौलत, यादें और ज़रूरी सामान इकट्ठा कर रहे थे। छोटे बच्चे अपनी माँओं के कंधों से लिपटकर रो रहे थे, बूढ़ों ने अपनी आँखों से आँसू पोंछकर चूल्हे बुझा दिए थे, और नौजवानों को अब डरने की कोई इजाज़त नहीं थी।
सब जल्दी में थे, लेकिन इसमें एक मकसद भी था, गाँव को बचाना। गुफाओं की ओर बढ़ते कदमों में थकान नहीं थी, बस एक बोझ था। बलदेव और उसके कुछ साथी गुफा तक पहुँच चुके थे और बुनियादी तैयारियाँ कर रहे थे, पानी के घड़े भरे जा रहे थे, फर्श पर चटाइयां बिछाई जा रही थी, और प्रवेश द्वार को मज़बूत किया जा रहा था।
इस अफरा-तफरी में राजवीर बस एक ही जगह खड़ा था, गाँव के चौक में। उसकी नज़रें इधर-उधर भटक रही थीं, लेकिन उसका चेहरा अजीब तरह से शांत था। संकट उसके सामने मंडरा रहा था, और यह जानते हुए भी, उसके चेहरे पर कोई डर नहीं, बल्कि एक अजीब सा संकल्प था। वह जानता था कि आने वाला युद्ध हाथियों जैसे सैनिकों के साथ है, लेकिन उसने गाँव वालों में जो आशा और संगठन की भावना जगाई थी, वह उसे हारने नहीं देने वाली थी।
यह युद्ध तलवारों से नहीं, बल्कि मनोबल से जीता जाना था। उनका मानना था कि गांव को बचाने का मतलब सिर्फ दुश्मन को हराना नहीं था, बल्कि गांव वालों के दिलों से डर को तोड़ना और उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराना भी था।
क्रमशः
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