भाग १०५
सुबह का अँधेरा कोहरा अभी भी गाँव पर छाया हुआ था, लेकिन वह कोहरा अब एक भयानक तूफ़ान की शुरुआत थी। दूर, सहस्त्रपाणि की सेना का एक विशाल बादल पर्वत श्रृंखला की चोटियों से नीचे उतर रहा था, मानो काल की सेना गाँव को निगलने के लिए बढ़ रही हो। सहस्त्रपाणि अपने काले घोड़े पर सवार था, और उसके पीछे एक हज़ार सशस्त्र सैनिकों की एक पंक्ति पूर्ण अनुशासन में खड़ी थी। तलवारों की आवाजें, ढालों की टक्करे और उस राक्षसी भीड़ के भय से पूरा इलाका काँप उठा था।
गाँव में अब केवल कुछ चुनिंदा योद्धा ही बचे थे, आशय और उसके पिशाच शिकारी, बलदेव और उसके नरभक्षी भेड़िये, राजवीर, आर्या और गाँव के कुछ बहादुर युवक। जैसे ही अँधेरे का यह अंतिम रणघोष सुनाई दिया, सभी अपने-अपने हथियारों के साथ युद्धभूमि में उतर आए। आशय और उसके साथियों ने अपने तीखे बाणों का उदारतापूर्वक प्रयोग करते हुए सहस्त्रपाणि की अग्रिम टुकड़ियों पर एक तूफ़ानी हमला बोल दिया। बलदेव और उसके भेड़िये तेज़ी से सेना में घुस गए और कोहराम मचाने लगे। फिर भी सहस्त्रपाणि सेना की ताकत अपार थी।
राजवीर अपनी दो तलवारों से एक के बाद एक सैनिकों को मार गिरा रहा था। लेकिन युद्ध का असली केंद्र आर्या थी।
वह अब अपनी नव-जागृत पिशाच शक्तियों से पूरी तरह भर चुकी थी। उसकी आँखें लालिमा से चमक रही थीं, और उसका शरीर मानो किसी दिव्य ऊर्जा का वाहक बन गया था। एक ही पल में, वह तीन सैनिकों को चीर रही थी। उसने एक सैनिक को हवा में उठाकर पटक दिया, दूसरे को सीने पर पंजा मारकर गिरा दिया, और तीसरे की गर्दन में अपने तीखे दाँत गड़ाकर उसे अशक्त कर दिया। कोई भी उसके सामने टिक नहीं सकता था।
"यह लड़की इंसान नहीं है," एक सैनिक चिल्लाया, अपने हथियार फेंककर वहाँ से भाग गया,
"में मौत हुं!" लेकिन क्रोध के बजाय, आर्या का चेहरा अब एक अजीब से क्रोध से चमक रहा था। वह केवल सुरक्षा के लिए नहीं लड़ रही थी, बल्कि अपने बच्चे और पूरी दुनिया के लिए वहां रुकी थी।
उधर, बलदेव और उसके सभी मित्र भेड़ियों के रूप में युद्धभूमि में प्रकट हो गए थे। उनके शरीर क्रोध से भरे हुए थे और उनकी आँखें प्रतिशोध की आग से भरी हुई थीं। हर एक भेड़िया एक वीर योद्धा की तरह प्रत्येक शत्रु पर टूट पड़ा था। उन्होंने न केवल अपने शस्त्रों का, बल्कि अपने जबड़ों की शक्ति और पंजों के तीखे प्रहारों का भी प्रयोग किया था। कई शत्रु सैनिकों के सिर उनके जबड़ों में फँसे हुए थे और वे उन्हें शरीर से अलग करते हुए शोर मचा रहे थे, और ज़मीन पर खून का एक बड़ा कुंड बह रहा था।
इस भीषण मुठभेड़ में कुछ भेड़िये भी जख्मी हो चुके थे। वे तलवारों से घायल हो गए थे, कुछ को विषैले बाणों ने छेद दिया था। लेकिन गाँव के वीर युवा और बलवान लोग उन्हें धीरे-धीरे और चुपके से युद्धभूमि से ले जा रहे थे। कुछ उन्हें अपने कंधों पर उठा रहे थे, तो कुछ एक-दूसरे की मदद से गाँव के खाली घरों तक पहुँचने में मदद कर रहे थे।
गाँव पहुँचते ही योद्धाओं के उपचार का दौर शुरू हो गया था। उनके घावों पर औषधीय पदार्थों की छोटी-छोटी शीशियों से औषधीय मलहम लगाए जा रहे थे, तो कुछ शुद्ध हल्दी को गर्म करके घावों पर लगा रहे थे। उन लड़ाकू भेड़ियों की आँखों में दर्द से परे वीरता की झलक थी, मानो वे कह रहे हों, "चाहे हमारी जान चली जाए, पर हम इस धरती, इस गाँव और इस सत्य को नष्ट नहीं होने देंगे!"
राजवीर भी पूरे जोश में था। वह सहस्त्रपाणि सेना के बड़े, बलवान और कुशल योद्धाओं को एक के बाद एक पकड़ पकड़कर मार रहा था। उसकी आँखों में आग थी, न सिर्फ़ युद्ध के लिए, बल्कि अपनों की रक्षा के लिए भी। वह हर दुश्मन का अंत तक पीछा कर रहा था, मानो समय उनके पीछे दौड़ रहा हो।
उसके वार भी सटीक थे, उसकी चाल तेज़ थी, और युद्ध में भी उसकी बुद्धि प्रखर थी। कोई भी सैनिक उसके सामने ज़्यादा देर तक टिक नहीं सकता था। सहस्त्रपाणि की सेना में अब भय का साया छाने लगा था।
"राजवीर कहीं भी आ सकता है और किसी को भी मार सकता है!" यही भयावह आवाज़ उनके सामने से भागने वालों के मुँह से निकल रही थी।
उसकी बची हुई हर ताकत, हर साँस अब एक ही लक्ष्य से जल रही थी। इस अँधेरे को खत्म करना और आर्या और उसके बच्चे को सुरक्षित रखना।
सुबह के खामोश अँधेरे में, आशय और उसके पिशाच शिकारियों ने गाँव के बाहरी इलाके में कुछ रणनीतिक जगहें चुन ली थीं और घात लगाए बैठे थे। अब उनके हाथों में धनुष-बाण थे, लेकिन हर लक्ष्य पर सटीक निशाना साधा जा रहा था। हवा में एक रहस्यमयी सन्नाटा था, हथियारों की तड़तड़ाहट की आवाज़ सभी जगह से निकल रही थी। आशय और दूसरों के धनुषों से निकले तीर बिजली की तरह हवा में उड़ रहे थे, दुश्मन सेना के सामने खड़े सैनिकों के सीने भेद रहे थे। एक भी तीर नाकाम नहीं जा रहा था।
एक के बाद एक तीर चलते, दुश्मन की पंक्तियाँ भ्रमित हो गईं। उनके चेहरों पर भय झलकने लगा। लेकिन इसी क्षण सहस्त्रपाणि का सेनापति, राक्षसी शक्ति वाला वह योद्धा, तीरों की दिशा को ठीक से देखकर, आशय की हरकतों को पहचानकर उसके पीछे पहुँच गया।
"अब तुम्हारा अंत हो गया!" उसने दहाड़ते हुए आशय को पीछे से ज़ोर से लात मारी। आशय आगे देख रहा था, उसे अंदाज़ा ही नहीं था कि उसके पीछे कौन आ रहा है। सेनापति की लात से आशय उछलकर ज़मीन पर गिर पड़ा। लेकिन बिना एक पल भी हिचकिचाए, वह तुरंत उठ खड़ा हुआ। उसके चेहरे पर कोई दर्द नहीं था, बस एकाग्रता और गुस्सा साफ दिख रहा था।
उसने अपनी तलवार निकाली, एक चमकदार, सावधानी से धारदार की हुई तलवार। और तुरंत सेनापति के सामने खड़ा हो गया।
दोनों के बीच घमासान युद्ध शुरू हो गया।
सेनापति के वार तेज़ और निर्दयी थे। लेकिन आशय की प्रतिक्रिया और भी ज़्यादा गतिशील लग रही थी। उसने हर वार को सटीकता से रोका। कभी अपनी तलवार से, कभी सटीक कदमों से, वह सेनापति के सभी वारों को चकमा दे रहा था। आस-पास के पिशाच शिकारी भी अब दूसरे सैनिकों को रोक रहे थे, लेकिन सबकी नज़र आशय की लड़ाई पर थी।
सेनापति ने आखिरकार अपनी भारी, दाँतेदार तलवार को गदा की तरह उठाया और एक ज़ोरदार वार करने की कोशिश की। लेकिन आशय ने समय से पहले ही उसे भाँप लिया। वह जल्दी से दाईं ओर मुड़ा और अपनी तलवार के एक झटके से सेनापति के हाथ में मौजूद हथियार को हवा में उछाल दिया।
हालाँकि सेनापति निहत्था था, फिर भी वह डरा नहीं। वह अपनी मुट्ठियों से आशय पर ज़ोर से वार कर रहा था, लेकिन थोड़ी देर बाद, एक तेज़ चटकने की आवाज़ सुनाई दी।
"शश्श्श!" आशय की तलवार का आखिरी वार सेनापति के सीने में धंस गया। उस क्षण, पूरा युद्धक्षेत्र शांत हो गया।
जैसे ही तलवार सेनापति के सीने में धंसी, उसके चेहरे पर एक पल के लिए आश्चर्य और पीड़ा की हल्की सी छाया दिखाई दी। उसने कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन उसके मुँह से केवल खून की बूँदें बह रही थीं। उसकी आँखें अभी भी आशय पर टिकी थीं, उसने अपने अंतिम क्षणों में सच्चे योद्धा को पहचान लिया था, और किसी को भी यह समझ नहीं आया। उसका शरीर पीछे की ओर झुक गया और एक ज़ोरदार धमाके के साथ युद्धक्षेत्र में उसके गिरने की आवाज़ सभी ने सुनी, मानो कोई पहाड़ टूटा हो। उस आवाज़ ने युद्धक्षेत्र में गड़गड़ाहट नहीं पैदा की, बल्कि एक भयानक सन्नाटा छा गया।
एक पल के लिए, सब कुछ थम सा गया, हवा में धूल के कण जम गए, घोड़ों की टापें थम गईं, और तलवारों की आवाज़ धीमी पड़ गई। सेनापति की मृत्यु केवल एक योद्धा का अंत नहीं थी; यह एक संकल्प, एक अहंकार और एक युग के अंत की घोषणा थी। आशय स्थिर खड़ा रहा, उसकी साँसें गहरी और हांप रही थीं। युद्धभूमि में सैनिक उसकी ओर देख रहे थे, कुछ सदमे में और कुछ डरे हुए।
उस तलवार की हवा से युद्ध का रुख पलट गया था। दुश्मन सैनिकों के चेहरों पर अब डर साफ़ दिखाई दे रहा था। आशय ने अपनी तलवार उठाई और ज़ोरदार दहाड़ लगाई।
"यह जीत न्याय की है। अभी बहुत कुछ बाकी है!"
उस रात पिशाच शिकारियों की बहादुरी और आशय के असीम साहस की स्मृति गाँव के सभी लोगों के मन में अंकित हो गई थी।
क्रमशः
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