भाग ३४
अब वह मायावी उलझन में पड़ गया। "यह क्या है? तुम कहाँ हो?" वह हताश होकर चिल्लाया।
इस मौके का फायदा उठाकर राजवीर उछल पड़ा और सामने वाले रास्ते पर दौड़ पड़ा। वह आकृति अभी भी उलझन में थी। लेकिन राजवीर जानता था कि वह जल्द ही उसका पीछा करेगी।
और ऐसा ही हुआ! आकृति चीखी और तेज़ी से उसकी ओर दौड़ी।
राजवीर एक विशाल चट्टान के पीछे पहुँचा और पास के एक पेड़ की सूखी टहनी पर अपने खंजर से वार किया। टहनी टूट गई और धड़ाम से नीचे गिर पड़ी, ठीक उस मायावी आकृति पर!
एक पल के लिए, वह आकृति काँप उठी, मानो उस जादुई पेड़ में फँस गई हो। उसी क्षण, राजवीर ने मौके का फायदा उठाया और तेज़ गति से आगे की ओर दौड़ा।
उसने पीछे मुड़कर देखा। वह आकृति पीड़ा से छटपटा रही थी, और उसकी आकृति धीरे-धीरे हवा में विलीन हो रही थी।
राजवीर ने गहरी साँस ली। "मैंने तुम्हें हराया नहीं, लेकिन मैंने तुम्हें ज़रूर धोखा दिया!"
अब वह दृढ़ निश्चय के साथ फिर से गुफा की ओर चल पड़ा। असली लड़ाई अभी बाकी थी!
उस मायावी छाया को चकमा देकर, कई घंटों की यात्रा के बाद, राजवीर आखिरकार गुफा के द्वार पर पहुँच गया। गुफा एक ऊँचे पहाड़ की तलहटी में थी। उस जगह के आसपास का वातावरण बेहद शांत और ठंडा था।
राजवीर अंदर गया। अंदर अंधेरा था और एक तरह की घनी, ठंडी हवा फैली हुई थी। दीवारों पर प्राचीन नक्काशी थी, जो किसी लुप्त सभ्यता की कहानी कह रही थी।
उसने अपनी तलवार की मूठ कसकर पकड़ी और सावधानी से आगे बढ़ा। अंदर कहीं न कहीं एक नक्शा होगा जो उसे रक्तमणि तक ले जाएगा ऐसा उसे लग रहा था। लेकिन वह जानता था कि यह सफ़र आसान नहीं होगा।
गुफा के घने अंधेरे में, कहीं कुछ हलचल हो रही थी... और राजवीर तैयार हो गया। क्योंकि असली लड़ाई अब शुरू होने वाली थी!
राजवीर कुछ देर गुफा के अंदर रहा। चारों तरफ घना अँधेरा था और एक गहरा, खामोश सन्नाटा छाया हुआ था। उसने गहरी साँस ली और आगे बढ़ा। जैसे-जैसे वह अंदर गया, अँधेरा और गहरा होता गया। दीवारों पर हवा घनी और नम लग रही थी।
धीरे-धीरे उसे अपने आस-पास कुछ हिलता हुआ महसूस हुआ। एक पल के लिए वह स्तब्ध रह गया। उसके सामने कुछ भी साफ़ नहीं दिख रहा था, लेकिन उसे एहसास होने लगा कि गुफा का यह अँधेरा सिर्फ़ अँधेरा नहीं था, इसमें कुछ अजीब बात छिपी हुई थी।
उसी पल उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई और वह संभला। जब वह आगे पहुँचा, तो उसे अचानक एहसास हुआ कि गुफा के अंदर एक बड़ी घाटी है!
उस घाटी को पार करने के लिए एक छोटा सा पुल बना हुआ था, पुराना और जीर्ण-शीर्ण। अंदर कुछ लकड़ियाँ सड़ चुकी थीं, कुछ रस्सियाँ ढीली लग रही थीं।
राजवीर ने कोई जल्दी नहीं की। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। वह हर कदम सोच-समझकर रख रहा था। उसे सावधान रहना था, क्योंकि वह जानता था कि पुल उसका पूरा भार नहीं उठा पाएगा।
धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए, उसने एक कदम आगे बढ़ाया और जैसे ही उसने लकड़ी पर पैर रखा, वह नीचे खिसक गई!
राजवीर का संतुलन बिगड़ गया और उसका एक पैर निचे लटक गया। इससे पहले कि वह संभल पाता, उसने जल्दी से किनारे पर लगी रस्सी पकड़ ली। अब वह हवा में झूल रहा था, एक लकड़ी के तख्ते पर लटका हुआ।
उसके नीचे गहरी खाई, घना अँधेरा था, मानो वहाँ से कभी कोई लौटा ही न हो।
राजवीर ने खुद को संभालने की कोशिश की। पूरी ताकत से रस्सी को पकड़े हुए, उसने अपने शरीर को ऊपर उठाने की कोशिश की। लेकिन गुफा की नम हवा, पसीने से तर हाथ और फिसलन भरी रस्सियों ने उसके लिए कोशिश करना और भी मुश्किल बना दिया था।
उसने दाँत चबाकर धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ना शुरू किया। आख़िरकार, एक लकड़ी की पट्टी पकड़कर, वह ऊपर उठा और पुल पर वापस बैठ गया।
उसने गहरी साँस ली।उसकी जान बच गई।
राजवीर ने घाटी की ओर देखा। अब वह ज़्यादा सतर्क था। पुल पार करने में अभी कुछ दूरी बाकी थी, और उसे अंदाज़ा भी नहीं था कि अभी कितने ख़तरे उसका इंतज़ार कर रहे हैं।
लेकिन एक बात पक्की थी, वह जीतने के इरादे से आगे बढ़ने वाला था!
राजवीर कुछ देर रुका और गहरी साँस ली। पुल पार करने का पिछला अनुभव अभी भी उसके ज़हन में ताज़ा था। उसने चारों ओर देखा। गुफा के अँधेरे में कोई हलचल नहीं थी, लेकिन उसके अंदर ज़रूर कुछ था।
पुल पार करने के बाद, उसे सामने एक छोटा रास्ता दिखाई दिया। गुफा की दीवारों पर अजीबोगरीब नक्काशी की गई थी, कुछ प्रतीकों को उसने पहचान लिया, जबकि कुछ बिल्कुल अनोखे थे। नक्काशी से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि यह गुफा बहुत समय से मौजूद है और यहाँ कोई बड़ा राज़ छिपा है।
राजवीर उस छोटे रास्ते पर आगे बढ़ने लगा। उसके हर कदम के साथ गुफा में हवा का दबाव बदलता हुआ सा लग रहा था। अचानक, उसे अपने सामने रोशनी की एक धुंधली किरण दिखाई दी। उसने उस तरफ देखा और सामने एक दरवाज़ा दिखाई पड़ रहा था, लेकिन दरवाज़ा कुछ धुंधला सा लग रहा था, मानो वह असली न हो।
जैसे ही वह आगे बढ़ गया, उसे लगा कि कोई उसके कान में फुसफुसा रहा है।
"राजवीर..."
वह मुड़ा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
"ये बस मेरे दिमागी खेल हैं," उसने खुद को चेताया और आगे बढ़ने लगा।
लेकिन अगले ही पल, एक काली, धुएँ जैसी चीज़ उसके सामने आ खड़ी हुई!
वह चीज़ धीरे-धीरे आकार लेने लगी। राजवीर ने तीखी नज़रों से देखा, और उसके सामने खड़ा था... उसकाही प्रतिबिंब!
लेकिन यह प्रतिबिंब साधारण नहीं था। उसकी आँखों में एक अजीब सी क्रूर अभिव्यक्ति थी। उसने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा और कहा,
"राजवीर, तुम क्या खोज रहे हो? तुम ऐसे रहस्यों की तलाश में हो जिनके जवाब तुम्हें कभी नहीं मिलेंगे।"
राजवीर ने बिना किसी डर के जवाब दिया,
"मैं अपने परिवार और अपने होने वाले बच्चे की सुरक्षा के लिए ऐसा कर रहा हूँ। अगर यह यात्रा मुझे सच्चाई के करीब ले जाती है, तो मैं किसी भी खतरे का सामना करने के लिए तैयार हूँ!"
राजवीर और उसके क्रूर प्रतिबिंब के बीच की बातचीत से पूरी गुफा काँप रही थी। वह काली, धुएँ जैसी चीज़ राजवीर के सामने खड़ी थी और उसके मन में असुरक्षा का बीज बोने की कोशिश कर रही थी।
प्रतिबिंब : "राजवीर, यहीं रुक जाओ। तुम आगे जाने को तैयार नहीं हो। तुम्हें इस गुफा से ज़िंदा लौटने का मौका नहीं मिलेगा।"
राजवीर ने अपनी तलवार कसकर पकड़े हुए निडरता से उसकी ओर देखा। उसकी आवाज़ स्थिर और दृढ़ थी।
राजवीर: "मेरे सामने खड़ा यह मेराही प्रतिबिंब मुझे रोक नहीं सकता। मैं अपने परिवार की सुरक्षा और इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए यहाँ आया हूँ। अगर तुम मुझे रोकने की कोशिश कर रहे हो, तो तुम्हारी कोशिशें बेकार हैं।"
प्रतिबिंब : "परिवार? सुरक्षा? एक पिशाच और एक मानव स्त्री से पैदा हुआ बच्चा इस ब्रह्मांड का संतुलन बिगाड़ देगा। उसका अस्तित्व ही ब्रह्मांड के लिए हानिकारक है! और तुम्हें लगता है कि तुम उसे बचा सकते हो?"
राजवीर एक पल चुप रहा, लेकिन उसके चेहरे पर दृढ़ संकल्प था।
राजवीर: "हाँ, मेरा बेटा इस ब्रह्मांड का हिस्सा होगा। उसका जन्म प्रकृति की देन है। उसे बचाने के लिए अगर मुझे इस ब्रह्मांड से भी लड़ना पड़े, तो मैं पीछे नहीं हटूँगा।"
प्रतिबिंब उसके चारों ओर चक्कर लगाता रहा, उसे और ज़्यादा उलझाने की कोशिश करता रहा।
प्रतिबिंब : "राजवीर, तुम्हारे दिल में डर है। तुम जानते हो कि अगर तुम आगे बढे, तो मौत तुम्हारा इंतज़ार कर रही होगी। यह सफ़र तुम्हें यही खत्म कर देगा।"
राजवीर ने अपनी तलवार उठाई और प्रतिबिंब के अस्तित्व पर तान दी।
क्रमशः
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