भाग ३७
राजवीर को आखिरकार नक्शा मिल ही गया था, जो रक्तमणि को ढूँढ़ने का रास्ता दिखा रहा था। गुफा के एक अँधेरे कोने में एक पुरानी नक्काशीदार दीवार पर नक्शा साफ़ दिखाई दे रहा था। नक्शे में कई जटिल रेखाएँ थीं, मानो वे प्रतीक हों जो पूरे इलाके के राज़ खोल रही हों। वह उस कोने में बैठ गया और अपने पास रखे एक कपड़े पर नक्शे के सारे रास्ते और रेखाएँ बनाने लगा। वह सिर्फ़ नक्शा रटने वाला नहीं था। उसने नीचे के मिट्टी का इस्तेमाल करके कपड़े पर कुछ चीज़ों को उभार दिया, बिल्कुल नक्काशीदार दीवारों की तरह। वे चमकीले धब्बे बता रहे थे कि वहाँ कुछ तो अलग है।
राजवीर ने नक्शे को बार-बार ध्यान से देखा, यह देखने के लिए कि क्या वह दीवार पर बनी रेखाओं जैसे ही बनी है या नहीं। अब वह बाहर निकलना चाहता था। लेकिन जैसे ही उसने पीछे के रास्ते से गुफा से बाहर निकलने की कोशिश की, उसे एहसास हुआ कि गुफा की बनावट पूरी तरह बदल चुकी है!
जिस रास्ते से वह अंदर गया था, अब वह मौजूद नहीं था। मानो गुफा का रूप ही बदल गया हो। वह आगे बढ़ने लगा, सामने की दीवार को छूता हुआ, लेकिन जहाँ कभी रास्ता था, वहाँ अब एक ठोस पत्थर का अवरोध बन गया था।
राजवीर एक दरवाज़े से अंदर घुसा और बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ़ने लगा। लेकिन हर बार सामने का रास्ता अचानक बंद हो जा रहा था। मानो वह किसी भूलभुलैया में फँस चुका हो।
"यह कौन सा नया ख़तरा है?" वह मन ही मन बुदबुदाया।
उसने विनायक द्वारा दिए गए नक्शे को देखा, लेकिन उसमें सिर्फ़ अंदर जाने का रास्ता दिख रहा था, उसने मान लिया था कि वह बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता होगा, लेकिन गुफा के जीवंत स्वरूप का उसमे ज़रा भी ज़िक्र नहीं था।
वह तेज़ी से एक तरफ़ भागा, लेकिन कुछ देर बाद वह वापस उसी जगह पहुँच गया जहाँ से वह निकला था।
अब उसे बेचैनी होने लगी। उसकी साँस फूलने लगी। उसे खाँसी आने लगी, जिससे उसका सीना धड़कने लगा। गुफा के इस खेल ने उसे परेशान कर दिया था। गुस्से में आकर उसने अपनी तलवार निकाली और सामने की दीवार पर तलवार की मुठ्ठी से वार कर दिया।
पल भर में दीवार एक धूल की तरह ढह गई! और दूर उसे एक धुंधली रोशनी दिखाई देने लगी।
रोशनी को देखकर उसे उम्मीद की एक किरण दिखाई दी। वह थोड़ा थका हुआ था, फिर भी पूरी ताकत से उसकी ओर दौड़ने लगा।
जब वह रोशनी में पहुँचा, तो उसने देखा कि एक सुरंग नजर आ रही थी, जिसमें से चाँदनी के रोशनी की तरह किरणे अंदर आ रही थी।
उसने गहरी साँस ली और सुरंग से बाहर निकलने की कोशिश शुरू की। आखिरकार, कुछ मिंटो की कोशिश के बाद, उसे एक लकड़ी का दरवाज़ा दिखाई दिया, लेकिन वह बंद था। उसने अपने खंजर से दरवाज़े को धीरे-धीरे काटा। जब उसने उसमें से बाहर निकलने लायक एक बड़ा छेद बना लिया, तो उसने धीरे-धीरे अपना सिर, फिर अपनी बाहें, अपना धड़ और अंत में अपने पैर बाहर निकाले। आखिरकार वह गुफा से बाहर निकल आया।
गुफा से बाहर निकलते ही ठंडी हवा उसके चेहरे पर लगी। घंटों अंधेरी गुफा में फँसे रहने के कारण उसे बाहर की रोशनी की आदत नहीं थी। उसने आँखें हल्की सी बंद कीं, गहरी साँस ली और खुद को संभाला। लेकिन उसके मन में बस एक ही विचार था "आशय"!
“आशय कहाँ होगा? क्या वह पहुँच गया है? क्या उसे समय पर संदेश मिल गया है?”
उसे याद आया कि उसे और आर्या को इन मुश्किलों से बाहर निकलने के लिए आशय जैसे अनुभवी योद्धा की सख़्त ज़रूरत थी। आशय सिर्फ़ एक दोस्त नहीं, एक कुशल योद्धा और चतुर रणनीतिकार था।
राजवीर के मन में यादें ताज़ा हो गईं, वह पल जब वे पहली बार मिले थे, वे पल जब वे युद्ध के मैदान में एक-दूसरे के साथ खड़े थे, और अब उसे अफ़सोस हो रहा था कि इस नाज़ुक मोड़ पर वह उसकी मदद के लिए वहाँ नहीं था।
“नक्शा तो मिल गया है, लेकिन उसे सुरक्षित रखने के लिए आशय की सख़्त ज़रूरत है।” राजवीर मन ही मन बुदबुदाया।
वह पत्थर पर बैठ गया और एक पल सोचा। गुफा से बाहर निकलने की खुशी को एक पल के लिए भूलकर, वह बस एक ही बात मन में लिए अपनी यात्रा पर निकल पड़ा, जितनी जल्दी हो सके, आशय को ढूँढ़ना बहुत ज़रूरी है!
अब उसे लगा कि गुफा में काफ़ी समय बीत चुका है, शायद पाँच-छह दिन, वह इतने दिनों से बिना आराम किए उस गुफा में था। बाहर आकर वह ज़मीन पर लेट गया और कुछ ही मिनटों में गहरी नींद में सो गया। ज़मीन पर कौन लेटा है, यह देखने के लिए जंगल से एक हिरण उसके पास आया, वह अपनी नाक से उसे देख रहा था, और इसी से राजवीर की नींद खुल गई। पाँच दिनों से भूखा होने के बजह से राजवीरने उसी क्षण हिरण को पकड़ लिया और इससे पहले कि हिरन कुछ कर पाता, उसने अपने नुकीले दाँत उसकी गर्दन में गड़ा दिए और उसका खून पीने लगा। उस छोटे से जानवर के शरीर का सारा खून पीने के बाद, राजवीर तरोताज़ा महसूस करता हुआ ज़मीन से उठ खड़ा हो गया।
उसे थांग गाँव की स्थिति की चिंता होने लगी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि गाँव से भेजा गया आदमी आशय तक संदेश पहुँचा पाया है या नहीं। क्योंकि आशय अभी तक उसकी मदद के लिए नहीं आया था।
राजवीर ने फिर से नक्शे पर नज़र डाली और मन ही मन सोचा, "अब असली संघर्ष शुरू हो गया है!"
वह जानता था कि यह नक्शा उसे रक्तमणि के स्थान तक पहुँचा देगा, लेकिन साथ ही, सहस्त्रपाणि के लोग जो उसका पीछा कर रहे थे, वे भी अब सावधान हो जाएँगे।
राजवीर नक्शा फिर से हाथ में लेकर एक पल के लिए वहीं खड़ा रहा। उसके मन में दो विचार आने लगे, क्या उसे रक्तमणि की तलाश जारी रखनी चाहिए, या थांग गाँव वापस जाकर आर्या और गर्भस्थ शिशु से पूछताछ करनी चाहिए, उसे बलदेव पर वैसे भी भरोसा नहीं था, वह आर्या का दोस्त था इसलिए उसने आर्या को उसके पास छोड़ दिया था।
उसके अंदर का राक्षस ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा था, "तुम्हें रक्तमणि ढूँढ़ना ही होगा! जितनी जल्दी तुम उसे ढूँढ़ लोगे, तुम और तुम्हारा परिवार उतना ही सुरक्षित रहेगा। अगर तुम देर करोगे, तो सहस्त्रपाणि के लोग तुम सबको ढूँढ़ ही लेंगे और फिर कुछ भी नहीं बचेगा!"
लेकिन साथ ही, उसके अंदर का एक पति और होने वाला पिता उसे पुकार रहा था, "आर्या अकेली है! वह गर्भवती है! उसे तुम्हारी ज़रूरत है, राजवीर। तुमने उससे वादा किया है कि तुम उसे कभी अकेला नहीं छोड़ोगे। अगर उस पर कोई मुसीबत आ गई तो? कम से कम इन कुछ दिनों के लिए, मुझे गाँव वापस जाकर खुद देखना होगा कि वह ठीक है, उसकी सभी ज़रूरतें पूरी हो रही हैं या नहीं।"
उसके मन का द्वंद्व ज़्यादा देर तक नहीं चला। आख़िरकार, उसके अंदर का राक्षस हार गया और प्यार जीत गया! राजवीर ने नक्शे को सावधानी से मोड़कर अपने कपड़ों में, अपने अंगरखे के अंदर रख लिया। उसने गहरी साँस ली और पलटा, "पहले मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि आर्या सुरक्षित है या नहीं, उसके बाद ही रक्तमणि की तलाश शुरू करूँगा। तब तक तो आशय आ ही गया होगा, और फिर मैं उसके साथ आगे बढ़ पाऊंगा," उसने सोचा, और उसके कदम थांग गाँव की ओर बढ़ गए!
थांग गाँव की सड़क पर चलते हुए उसे कुछ अलग सा एहसास होने लगा, उसे लगा कि हज़ारों लोग इधर-उधर आ-जा रहे हैं। वह डरा हुआ था, सोच रहा था कि शायद उन लोगों को वह जगह मिल गई हो जहाँ आर्या और बलदेव ठहरे हुए थे। चाहे कुछ भी हो जाए, वह चाहता था कि आर्या को कोई परेशानी न हो।
वह दृढ़ निश्चय के साथ चल पड़ा। वह अब समय बर्बाद नहीं करना चाहता था।
क्रमशः
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