भाग ४७
रात के काले साये हर तरफ छाए हुए थे। बाहर पेड़ों की डालियाँ हवा में सरसरा रही थीं, मानो वे राजवीर और बलदेव के मन में चल रही उथल-पुथल का हिस्सा बन गई हों। चाँद बादलों के पीछे छिप गया था, और उस अँधेरे माहौल में, अतीत की परछाइयाँ जीवंत हो उठी थीं।
राजवीर कुछ कदम आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मृणालिनी की आवाज़ अभी भी उसके कानों में गूंज रही थी।
"राजवीर, मुझे फिर से मत खोना... आर्या को बचा लेना!"
वह पसीने से तरबतर था। सहस्त्रपाणि ने मृणालिनी पर जो अत्याचार किए थे, वे उसकी आँखों के सामने साफ़ दिखाई दे रहे थे। उसका खून से सना शरीर, दर्द से काँपता चेहरा... और अब वही दर्द आर्या पर भी पड़ने वाला था?
"नहीं!" वह ज़ोर से चिल्लाया और वहीं रुक गया। उसके पैर काँप रहे थे। वह आगे नहीं बढ़ पा रहा था। आर्याने चिंतित होकर उससे पूछा, "क्या हुआ, तुम क्यों रुक गए? हमें जल्द से जल्द आगे बढ़ना होगा, इससे पहले कि कोई समस्या आए। एक जगह खड़े रहने से कुछ नहीं होगा। बल्लू, ज़रा देखो तो राजवीर क्यों रुक गया, उसका चेहरा बदल गया है ऐसे लगता है।"
उसी समय, बलदेव के दिमाग में एक अलग ही जंग छिड़ चुकी थी। उसकी आँखों के सामने एक काली परछाईं आकार ले रही थी। यह उसके भेड़िये के अस्तित्व की छवि थी, एक राक्षसी, खून का प्यासा भेड़िया!
"क्या हुआ, बलदेव?" परछाईं फुसफुसाई। "मैं तुम्हारे अंदर हूँ। मैं तुम्हारी रगों में बहते खून में हूँ... और अब मुझे भूख लगी है!"
बलदेव डर के मारे पीछे हट गया। "तुम... तुम कौन हो?"
"मैं.....? मैं तुम्हारे ही मन का एक हिस्सा हूँ! याद करो जिस दिन तुम्हें भेड़िये का रूप दिया गया था, उसी दिन से मैं तुम्हारे अंदर हूँ। मैं तुम्हारे अंदर छिपा असली भेड़िया हूँ, बलदेव!"
तभी उसके मन में छाया ने हल्की सी मुस्कान के साथ पूछा, "आर्या कितनी नाज़ुक है? क्या तुम्हें अंदाज़ा है कि उसका शरीर कितना रसीला होगा?"
बलदेव की छाती ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगी। उसने सिर पर हाथ रखा और ज़ोर से चीखा।
"चुप रहो... चुप रहो!"
"और ये राजवीर? कितना बड़ा मुसीबत बन गया है! इसे क्यों बर्दाश्त कर रहे हो? इसे ऐसे फाड़ डालो जैसे असली भेड़िया अपने दुश्मन को फाड़ डालता है! ये हमारा पुश्तैनी दुश्मन है, भेड़िया और पिशाच कभी नहीं मिलते, ये पिशाच पाखंडी हैं, तुम्हे पता भी नहीं चलेगा कि कब धोखा दे दें।"
बलदेव अपना सिर पकड़कर वहीं बैठ गया।
उसी पल, राजवीर की आँखों के सामने मृणालिनी का खून से सना चेहरा उभर आया। वह उसे फिर से चेतावनी दे रही थी।
"आर्या को बचा लो, राजवीर! वरना वो भी मेरी तरह मर जाएगी!"
वह ज़ोर से चिल्लाया और आँखें कसकर बंद कर लीं। लेकिन जैसे ही उसने आँखें खोलीं, उसे एक एहसास हुआ। वह खुद सहस्त्रपाणि के सामने खड़ा था, और आर्या उसके पैरों में खून से लथपथ पड़ी थी!
"नहीं!"
वह ज़ोर से चिल्लाया और हाँफते हुए बैठ गया।
उस समय, बलदेव और राजवीर दोनों एक भयानक मानसिक युद्ध में उलझे हुए थे। एक अतीत से त्रस्त था, तो दूसरा अपने भीतर के राक्षस से मोहित हो रहा था।
रात के अँधेरे में वह जगह और भी डरावनी लग रही थी। राजवीर और बलदेव अपने अतीत की गिरफ्त में थे, लेकिन आर्या ने भी एक अलग संघर्ष शुरू कर दिया था। उसके थके हुए शरीर को आराम की ज़रूरत थी, लेकिन मन में उठे तूफ़ान ने उसे आँखें खोलने ही नहीं दीं।
वह एक दीवार से टिककर बैठी थी। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था, उसकी साँसें शोर कर रही थीं। अचानक, ठंडी हवा के साथ वातावरण में एक अजीब सा बदलाव महसूस हुआ। सामने एक धीमी रोशनी चमकी और उसमें से दो अस्पष्ट आकृतियाँ उभरने लगीं।
"आर्या...!"
उसकी माँ की जानी-पहचानी आवाज़ उसके दिल में चुभ गई।
"माँ...पापा!" वह काँपती हुई आवाज़ में बुदबुदाई।
आकृतियाँ साफ़ दिखाई देने लगीं, उसके माता-पिता उसके सामने खड़े थे। लेकिन उनके चेहरे दर्द से भरे थे, उनकी आँखें डर से भरी थीं।
"आर्या, तुम यहाँ क्यों आई हो?" उसकी माँ ने पूछा।
"राजवीर... वो मेरे पति हैं, मैं उनके साथ हूँ।" आर्या ने थोड़े धैर्य के साथ उत्तर दिया।
"पति?" उसके पिता ने ठंडी मुस्कान के साथ पूछा। "वो पति है या पिशाच?"
आर्या की साँस अटक गई।
"क्या तुम उसके बारे में सच नहीं जानती? उसके खून में पिशाच का श्राप है, वो तुम्हें कब तक बचाए रखेगा? एक दिन वो भूखा होगा और तुम्हारा गर्म खून उसके सामने होगा... अगर उसने अपनी इच्छा पूरी नहीं की तो क्या होगा?"
"नहीं! वो ऐसा कभी नहीं करेगा!" आर्या ने दृढ़ता से उत्तर दिया।
"क्या तुम्हें यकीन है?"
उसके शब्दों ने आर्या के मन में उलझन पैदा कर दी। राजवीर ने हमेशा उसकी रक्षा की थी, लेकिन पिशाच योनि का श्राप उसके खून में था, यही सच था।
उसकी माँ की आँखों में आँसू आ गए। "आर्या, हम अपनी बेटी को इस तरह तड़पते नहीं देख सकते। पिशाच पति एक समस्या है, लेकिन तुम दूसरी समस्या समझती हो, है ना?"
"क्या?"
"बलदेव।"
उस पल, ऐसा लगा जैसे अँधेरा और भी गहरा हो गया हो।
"क्या यह सच में तुम्हारा दोस्त है? यह अब पूरा भेड़िया बन गया है। और तुम्हें पता भी नहीं है कि यह क्या करेगा?"
"माँ, बलदेव मेरा अच्छा दोस्त है, वह मेरी रक्षा करने आया है!" आर्या ने स्पष्ट रूप से कहा।
"क्या वह रक्षा के लिए तुम्हारे साथ है या वह तुम्हें अपना शिकार समझता है?"
आर्या के चेहरे पर दबाव साफ़ दिखाई दे रहा था।
"क्या तुमने देखा नहीं कि वह खुद पर कैसे काबू खो देता है? उसे अपनी ज़बान पर भी काबू नहीं रहता। क्या तुम्हें लगता है कि वह तुम्हें कभी नुकसान नहीं पहुँचाएगा? एक दिन उसका भेड़िया रूप उसे पूरा निगल जाएगा। और उस दिन तुम उसके सामने होगी!"
आर्या ने सिर हिलाया। "नहीं... ऐसा नहीं होगा... दोनों में से कोई भी मुझे कभी नुकसान नहीं पहुँचाएगा!"
"क्या तुम्हें यकीन है?"
उसकी आवाज़ में संदेह उसे उलझन में डाल रहा था।
"गाँव की ज़िम्मेदारी लेकर तुम खुद को खतरे में डाल रही हो, आर्या," उसके पिता ने गंभीर स्वर में कहा। "इस सब से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारा बच्चा भी सुरक्षित नहीं रहेगा। अपनी रक्षा करो, यहाँ से चले जाओ!"
वह काँप उठी। उसके मन में विचारों का तूफ़ान उठा। क्या उसके माता-पिता की बातें सच थीं? या वे सिर्फ़ उसके डर की प्रतिध्वनि थीं?
तभी कहीं से एक दहाड़ सुनाई दी। वह चमक उठी और जैसे ही उसने पीछे मुड़कर देखा, उसने देखा कि राजवीर और बलदेव सिर पकड़े ज़मीन पर गिर पड़े हैं।
"माँ! पापा! मैं... मैं क्या करूँगी?"
"तुम अपने बारे में सोचो, आर्या। वरना..." उसकी माँ ने ऐसी आवाज़ निकाली जैसे आखिरी साँसें ले रही हों। "तुम भी उनके जैसी हो जाओगी!"
इन शब्दों ने आर्या के पैरों तले ज़मीन खिसका दी।
तभी जंगल में एक भयानक चीख गूँजी। वह पीछे मुड़ी, लेकिन उसके माता-पिता की आकृतियाँ गायब हो गई थीं। बस ठंडी हवा उसे छू रही थी।
उसके दिल में डर की लहर दौड़ गई। राजवीर और बलदेव का अतीत उन्हें सता रहा था।
अचानक, उसके विचारों का सिलसिला टूट गया और विनायक द्वारा दिया गया थैला आर्या के हाथ से गिर गया और उसमें से एक चमकीला नीला फूल निकला। उस भयावह क्षण में, उसका हाथ स्वाभाविक रूप से फूल पर गया। उसने उसे उठाया और उसे सूँघा। एक पल में, उसके मन का कोहरा छँट गया। विचार उसके दिमाग में हवा की तरह दौड़ गए, यह सब असली नहीं था! यह वैसी ही जगह थी जहाँ भ्रम लोगों को डराता है। उसके माता-पिता की आत्माएं, उनके डरावने शब्द, यह सब इस जगह द्वारा उसके मन में बोया गया भ्रम का जाल था।
जैसे ही उसे यह एहसास हुआ, वह तुरंत उठी और राजवीर और बलदेव की ओर दौड़ी। दोनों अभी भी डर के मारे काँप रहे थे। आर्या ने पहले नीले फूल की खुशबू राजवीर की नाक से लगाई। कुछ ही पलों में उसका काँपता शरीर स्थिर हो गया, साँसें धीमी हो गईं और उसने आँखें खोल दीं। उसी क्षण, वह वही खुशबू बलदेव तक ले गई। वह भी काँप रहा था, उसकी आँखों में भेड़िये जैसी वासना की एक पागल सी झलक दिखाई दे रही थी, लेकिन उस फूल की खुशबू ने उसकी आँखों को शांत कर दिया, और उसके चेहरे पर अपनापन लौट आया।
दोनों अचानक किसी गहरे गड्ढे से बाहर निकले हुए लगे। राजवीर ने गहरी साँस ली और आर्या के हाथ पर हाथ रखकर पूछा, "यह सब क्या था?"
आर्याने दृढ़ता से उत्तर दिया, "भ्रम ! यह जगह हमें डर दिखाकर हमारी यात्रा रोकने की कोशिश कर रही थी। लेकिन अब हम इसके चंगुल से बच निकले हैं!"
क्रमशः
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