भाग ६५
राजवीर और बलदेव रात में घर के पिछवाड़े में खड़े थे। बाकी सब सो रहे थे, लेकिन राजवीर के मन में अनगिनत विचारों का बवंडर उमड़ रहा था। वह कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा, फिर बलदेव से धीरे से बोला, "क्या तुम्हें यकीन है कि तुम्हारे दोस्त यहाँ कुछ गलत नहीं करेंगे?"
बलदेव चुपचाप खड़ा रहा, रात के अँधेरे में देखता रहा। चाँदनी ज़मीन पर हल्की-सी फैली हुई थी, और उस सन्नाटे में सिर्फ़ चमगादड़ो की आवाज़ सुनाई दे रही थी। राजवीर के सवाल से वह थोड़ा घबरा गया, लेकिन उसने अपना संयम नहीं खोया। उसने एक गहरी साँस ली और धीमी लेकिन दृढ़ आवाज़ में जवाब दिया।
“राजवीर, मैं इन्हें कई सालों से जानता हूँ। ये मेरी तरह ही हैं, आदमखोर भेड़िये। हालाँकि ये खूँखार हैं, पर फिलहाल इनके कोई बुरे इरादे नहीं हैं। ये बस एक-दूसरे को अपना वजूद और अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। इसीलिए ये पूर्णिमा की रात जंगल जा रहे हैं। ये जंगल में अपना असली रूप दिखाएँगे, लेकिन मैं इस बात का पूरा ध्यान रख रहा हूँ कि ये गाँव में और हमारे घर के आस-पास कोई नुकसान न पहुँचाएँ।” वह एक पल चुप रहा, फिर बोला,
“मेरे मन में भी थोड़ा शक है, पर मैं आशावादी हूँ। अगर इन्हें लगता भी है कि तुममें कुछ अलग है, तो ये चुप नहीं बैठेंगे। इसलिए मैं उस रात इनके साथ जंगल जाऊँगा, इनका असली रूप देखने। तुम सतर्क रहना, पर डरना मत। तुम्हारी और आर्या की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी मैं लेता हूँ।” बलदेव की बातों में आत्मविश्वास था, पर राजवीर के मन में शक की लकीर अभी गई नहीं थी, राजवीर थोड़ा बेचैन हो रहा था।
“मुझे तुम पर यकीन है, बलदेव,” राजवीर ने कहा, “लेकिन मुझे तुम्हारे दोस्तों पर ज़रा भी भरोसा नहीं है। पूर्णिमा की रात जंगल में जाने का आख़िर मक़सद क्या है? क्या वे बस खुद को रोकने जा रहे हैं, या उनके मन में कुछ और है?”
बलदेव ने गंभीर निगाहों से राजवीर को देखा। उसे अंदाज़ा हो गया कि राजवीर के मन से शक के बादल अभी छँटे नहीं हैं। वह कुछ देर चुप रहा, मानो सही शब्द ढूँढ़ रहा हो। फिर उसने शांत लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया,
“राजवीर, मुझे पता है तुम आर्या के लिए डरे हुए हो। सच कहूँ तो मैं खुद भी उन्हें पूरी तरह समझ नहीं पाया हूँ। वे कहते हैं कि वे जंगल में सिर्फ़ मनोरंजन के लिए जा रहे हैं। वे अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने की कोशिश भी कर रहे हैं, लेकिन... मैंने उनकी आँखों में एक अलग ही चमक देखी है। मानो वे इस बदलाव का आनंद ले रहे हों। उनके शब्दों में एक सूक्ष्म गर्व है, मानो उन्होंने इस शक्ति पर पूर्ण नियंत्रण पा लिया हो।
वे कहते हैं कि वे केवल कमज़ोर जानवरों का शिकार करते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि सिर्फ़ जानवर ही उनकी भूख मिटाने के लिए काफ़ी नहीं हैं। मेरे पास इसे साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है, लेकिन मेरे मन में भी संदेह की एक छाया है। इसलिए मैं तुम्हारी और आर्या की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते हुए कदम उठा रहा हूँ। तुम भी सावधान रहना, राजवीर। इस रात, चाँदनी में ही नहीं, पर साये में भी, कोई बड़ा ख़तरा छिपा हो सकता है।”
राजवीरने मन ही मन एक फैसला किया। उस रात वह अपनी आँखों को सोने नहीं देगा। उसे आर्या की रक्षा करनी थी। पूर्णिमा की रोशनी में, कुछ भी अप्रत्याशित हो सकता था, और वह एक पल भी नहीं गँवाना चाहता था।
राजवीर ने अंदर जाने का नाटक किया, लेकिन उसकी आँखों में जागते रहने का दृढ़ संकल्प साफ़ दिखाई दे रहा था। पूरा गाँव पूर्णिमा की सफ़ेद रोशनी में नहाने वाला था, लेकिन उस रोशनी की परछाई में क्या छिपा था, इसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता था। वह आर्या के पास बैठ गया और उसकी धीमी साँसों की आवाज़ सुनने लगा। वह चैन से सो गई, क्योंकि वह जानती थी कि राजवीर उसकी रक्षा के लिए वहाँ है।
लेकिन एक विचार उसके मन में बार-बार घूम रहा था, क्या होगा अगर बलदेव के दोस्त अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाए? क्या होगा अगर उन्होंने अपनी असली भूख छिपाई हो और सही मौके का इंतज़ार कर रहे हों? उसे हर हाल में सावधान रहना था। उसकी नसों में तनाव फैल गया, उसकी हर हरकत पर कड़ी नज़र रखी जा रही थी। अगर यह रात शांति से बीत भी जाए, तो भी वह भोर तक जागता रहेगा।
शाम का अंधेरा छा गया था। चाँद अभी पूरी तरह नहीं निकला था, लेकिन उसकी धुंधली रोशनी जंगल की काली परछाइयों से छनकर आ रही थी। दुर्गेश्वर, कालेश्वर और बलदेव के बाकी दोस्त, सब धीरे-धीरे घने जंगल में दाखिल हो गए थे। उनकी आँखें चमक रही थीं, उनके शरीर में एक अनाम उत्साह उमड़ रहा था। जैसे ही उन्हें पूर्णिमा का प्रभाव महसूस होने लगा, वे एक-दूसरे को देखने लगे।
उस पल, मानो प्रकृति ने ही कोई भयानक खेल खेला हो। आकाश में चाँद चमक रहा था, और उस रोशनी में, बलदेव के दोस्त एक क्रूर, वीभत्स रूप धारण कर रहे थे। उनकी हड्डियों के चटकने की आवाज़ आ रही थी, मानो उनके शरीर एक नए अस्तित्व में समा रहे हों। उनके हाथ लंबे हो रहे थे, उनकी उंगलियाँ नुकीले नाखूनों में बदल रही थीं, और उनके शरीर घने, घुंघराले बालों से ढक रहे थे।
उनकी आँखों में मानवता का कोई निशान नहीं बचा था, वे अब निर्दयी, भूखे शिकारी बन गए थे। उनकी मांसपेशियों में नई ताकत आ रही थी, और उन राक्षसी शरीरों ने पल भर में ही मानवीय सीमाओं को चुनौती दे दी थी। उन्होंने चाँद की ओर देखा और दहाड़ने लगे, और उस ध्वनि से जंगल के सभी जीव मानो स्तब्ध रह गए।
उस भयानक दहाड़ ने वातावरण को रहस्यमय बना दिया। पक्षियों ने चहचहाना बंद कर दिया। बुलबुलों की आवाज़ में एक प्रकार की दहशत फैल गई। बलदेव उनके साथ था, लेकिन उसकी आँखों में एक अलग ही चमक थी। वह जानता था कि वह उन्हें रोक नहीं पाएगा, फिर भी उसने कोशिश करने का फैसला किया। एक-एक करके, वे घने जंगल में एक-दूसरे से होड़ कर रहे थे।
उनकी भूखी आँखें शिकार की तलाश में भटकने लगीं। उनके तीखे पंजों की खरोंचें घास के पत्तों पर दिखाई दे रही थीं, और पत्तों की सरसराहट जंगल में उनकी गतिविधियों की घोषणा कर रही थी। ऐसा लग रहा था मानो मौत स्वयं इस जंगल में खुलेआम घूम रही हो। बलदेव ने उनकी गतिविधियों पर नज़र रखने की कोशिश की, लेकिन मन के गहराइयों में वह जानता था, यह रात निश्चित रूप से एक अशांत भोर का अग्रदूत थी।
उस रात, जंगल का एक अलग चेहरा सामने आया था, एक ऐसा चेहरा जहाँ केवल शिकार और मौत का ही राज था। दुर्गेश्वर ने जैसे ही हिरण को पकड़ा, उसकी बेबस छटपटाहट की आवाज़ हवा में धीमी पड़ गई। नरभक्षी के क्रूर जबड़ों ने हिरण की कोमल गर्दन में अपने दाँत गड़ा दिए, और कुछ ही पलों में उसकी मासूम आँखों की जान चली गई।
खून की बूँदें ज़मीन पर गिर रही थीं, और दुर्गेश्वर की आँखें बेचैन कर देने वाली जीत से भरी थीं। वह दृश्य देखकर बाकी लोगों की भूख और भी बढ़ गई। कालेश्वर एक जंगली सूअर पर झपटा। वह भागने की कोशिश कर रहा था, लेकिन कालेश्वर के भयानक शरीर की ताकत के आगे उसकी तेज़ी नाकामयाब रही। उसने उसे ज़मीन पर पटक दिया और एक ही झटके में उसका गला काट दिया। खून की गर्म धाराओं ने मानो उन हिंसक शरीरों की भूख और भी बढ़ा दी थी।
बाकी लोग भी पीछे नहीं थे। एक पेड़ की डाल पर बैठा एक कौआ अचानक ज़ोर से फड़फड़ाया, लेकिन उससे पहले ही एक और भेड़ियाने हवा में उछलकर उसे पकड़ लिया। चिड़िया के फड़फड़ाने की आवाज़ एक पल के लिए गूँजी, और फिर सब खामोश हो गए। मानो मौत ही वहाँ खड़ी हो। रात के साये में सुरक्षित महसूस करने वाले छोटे जानवर अब डर के मारे जम से गए थे।
कुछ खरगोश छाया में छिप गए थे, लेकिन उनके पास भी जीने का समय नहीं था। जैसे ही एक पेड़ के पीछे से निकला, एक भेड़िया उस पर झपटा और उसे कुचल डाला। उस पल, उन नरभक्षियों के लिए कोई सीमा नहीं थी, कोई पवित्रता नहीं थी, सिर्फ़ रक्त की लालच और क्रूर होने की ललक थी।
बलदेव थोड़ी दूर खड़ा था। वह भी भेड़िये के रूप में था, लेकिन उसकी आँखें बाकियों की तरह पागलों जैसी चमक नहीं रही थीं। वह सतर्क था। वह अपने दोस्तों, उनकी गतिविधियों और उनके व्यवहार पर नज़र रख रहा था। क्योंकि वह जानता था, अगर वे अपनी हिंसा की हदें ज़रा भी पार करके गाँव पहुँच जाते, तो पूर्णिमा का यह खेल एक विनाशकारी नरसंहार में बदल जाता।
क्रमशः
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