भाग ६६
उस रात जंगल में अलग ही माहौल में अँधेरा छा रहा था। खून के प्यासे भेड़िये परछाइयों में घुल-मिलकर शिकार की तलाश में बेतहाशा भाग रहे थे। उनकी हर हरकत में डर की एक लय थी, नपे हुए कदम, उनके गले से कभी-कभार आती गुर्राहट, और रात के सन्नाटे को चीरती उनकी पैनी निगाहें। उनकी हरकतों से जंगल के दूसरे जानवर डर गए थे।
पक्षी पेड़ों की डालियों पर जम गए, जबकि कुछ खरगोश और हिरण अंधेरी परछाइयों में छिपने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। लेकिन ये शिकारी कोई साधारण शिकारी नहीं थे, उनके तीखे कान हर हरकत पर नज़र रख रहे थे, उनकी तीखी नाक हर साँस के साथ शिकार की तलाश में थी, और उनकी भूखी आँखें जंगल में घूम रही थीं। उनकी भयावह उपस्थिति ने पूरे इलाके को मानो एक मृत सन्नाटे में डुबो दिया था, मानो पूरा जंगल उनके निर्दयी शिकार के लिए तैयार हो।
दुर्गेश्वर और कालेश्वर ने हिरण पर हमला कर दिया था। हिरण तेज़ी से भागने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसकी लंबी छलांगें उनकी ताकत के सामने कुछ भी नहीं थीं। दुर्गेश्वर ने एक छलांग लगाकर अपने विशाल पंजे उसकी पीठ पर रख दिए, और कालेश्वर ने अपने जबड़े उसकी गर्दन पर जकड़कर उसे पल भर में नीचे गिरा दिया। जैसे ही खून की गर्म, नम धार ज़मीन पर गिरी, उनकी आँखों में भूख और भी बढ़ गयी।
दूसरी ओर, कुछ भेड़ियों ने छोटे-छोटे शिकार पकड़े थे, कुछ खरगोशों को पकड़कर उनकी हड्डियाँ कुतर रहे थे, तो कुछ जंगली सूअरों का पीछा कर रहे थे। सूअर जान बचाने के लिए चीखते हुए भागे, लेकिन वे खून से लथपथ शिकारियों से बच नहीं सके। इन नरभक्षियों के मन में उस समय और कोई विचार नहीं था, न अतीत का, न भविष्य का। उनके मन में बस दो ही बातें थीं, खून और भूख। उस अँधेरी रात में, जंगल मांस के फटने और हड्डियों के टूटने की आवाज़ से गूंज रहा था।
हवा ने गति पकड़ ली। अचानक, उसने दिशा बदल दी। जो हवा पहले दक्षिण से बह रही थी, अब उत्तर से बहने लगी।
एक पल के लिए, सब कुछ थम सा गया।
कालेश्वर और दुर्गेश्वर एक पल के लिए वहीं खड़े रहे। उनके तीखे नथुनों ने हवा में घुली गंध को पकड़ लिया था, यह किसी साधारण जानवर की गंध नहीं थी। उनकी भीषण भूख के लिए यह गंध नई और अपरिचित लग रही थी, पर उसमें एक अलग ही आकर्षण था। उनकी आँखें चमक उठीं। वे एक-दूसरे को देखने लगे, मानो बिना बोले ही कुछ समझ गए हों। क्या यह कोई नई शक्ति थी जिसने उनके भीतर के शिकारी को चुनौती दी थी?
उनके गुर्राने की आवाज़ धीरे-धीरे बढ़ती गई। अब उनके लिए इस गंध का स्रोत ढूँढ़ना ज़रूरी हो गया था। दूसरे भेड़ियों को भी इस अनोखे खून की गंध आने लगी, और एक-एक करके वे रुक गए। पूर्णिमा के प्रकाश में उनकी परछाइयाँ और भी भयावह लग रही थीं। बलदेव ने यह देखते ही उसकी छाती धड़कने लगी। वह जानता था, यह किसकी गंध है। और अगर ये भेड़िये उस दिशा में गए, तो कुछ बुरा हो जाएगा। वे सब आपस में जानवरों की भाषा में बातें करने लगे।
दुर्गेश्वर (नाक फुलाते हुए, गुर्राते हुए) : “यह गंध… यह कोई साधारण गंध नहीं है! क्या तुम इसे सूंघ सकते हो? यह हमारे जैसे किसी की नहीं है।”
कालेश्वर (आँखें चौड़ी करते हुए) : “हाँ। यह… यह किसी और खून की गंध है। कुछ अनोखा, कुछ गंदा… और जाना-पहचाना।”
दुर्गेश्वर (पूरे यकीन के साथ) : “यह एक रक्तपिशाच है! मुझे पूरा यकीन है! उनका खून अलग होता है। हम उनकी गंध जरा भी बर्दाश्त नहीं कर सकते। और तुम जानते हो, भेड़ियों और रक्तपिशाच में जन्मजात दुश्मनी होती है। वे हमारे कट्टर दुश्मन हैं!”
बाकी भेड़िये एक-दूसरे को देखने लगे। उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गए थे। उनमें से कुछ अपने पंजों से ज़मीन कुरेदने लगे।
कालेश्वर (गर्जन भरी आवाज़ में) : “अगर यह सचमुच एक रक्तपिशाच है, तो हम इसे ज़िंदा नहीं छोड़ सकते। आज नहीं तो कल यह हमारे लिए ज़रूर ख़तरा बनेगा!”
दूसरे भेड़िये (एक साथ गुर्राते हुए) : “हाँ! चलो उसे खत्म कर देते हैं! अभी!”
वे एक चीख़ से चिल्ला उठे। जंगल काँप रहा था। उनकी लाल आँखें उन्मत्त हिंसा से चमक उठीं। वे हमला करने के लिए तैयार हो गए।
बलदेव (डरते हुए, उन्हें रोकने की कोशिश करते हुए) : “रुको! ऐसा कुछ मत करो! पहले अच्छी तरह देख लेते हैं, सोचते हैं। उस पिशाच ने अभी तक हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा है…”
दुर्गेश्वर (बलदेव को घूरते हुए) :“बलदेव! तुम क्या कह रहे हो? मानो तुम उसका पक्ष ले रहे हो? क्यों? तुम उसका इतना बचाव क्यों कर रहे हो?”
कालेश्वर (सावधानी से) : “कुछ तो गड़बड़ है… बलदेव, तुम्हारे दिमाग में ज़रूर कुछ और चल रहा होगा।”
बलदेव (जल्दी से, उन्हें शांत करने की कोशिश करते हुए) : “मैं उसका पक्ष नहीं ले रहा। लेकिन सोचो, अगर हम अभी उस पर हमला कर दें और कुछ गड़बड़ हो जाए तो क्या होगा? अगर वह वैसा न हो जैसा हम सोचते हैं तो क्या होगा?”
दुर्गेश्वर (अब और ज़्यादा आक्रामक होते हुए) :"हम किसी भी पिशाच को ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। चाहे वो कोई भी हो! हम उसे चीर-फाड़ देंगे!"
सब एक साथ चिल्लाए और एक के बाद एक उछलकर उत्तर दिशा की ओर भागने लगे। बलदेव का दिल दहल गया। अब चाहे कुछ भी हो जाए, ये भेड़िये रुकने वाले नहीं थे। वह बेतहाशा उनके पीछे दौड़ा, लेकिन उसे पता था, इस रात कुछ बड़ा और भयानक होने वाला है!
उसने बहुत सावधानी बरती थी कि यह समय न आए। लेकिन अब, नियति ने खेल खेला था।
राजवीर उस समय घर पर था, आर्या की रक्षा के लिए जाग रहा था। अगर ये भेड़िये उस तक पहुँच गए, तो वे उसे ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। सिर्फ़ उसे ही नहीं आर्या को भी नहीं।
बलदेव के मन में अनगिनत विचार उमड़ रहे थे। वह अपने दोस्तों की आक्रामकता और उनकी आँखों में जलती हिंसा को साफ़ देख सकता था। अगर वे राजवीर के घर पहुँच गए, तो वहाँ कुछ भयानक होना तय था। राजवीर अकेला कब तक उनका सामना कर सकता था? और आर्या... अगर ये भेड़िये उसे देखकर पागल हो गए, तो उसका क्या होगा?
उसने तुरंत फैसला किया, भले ही वे उसके दोस्त ही क्यों न हों, अगर वे पागल हो गए, तो उन्हें रोकना ही होगा। बलदेव उन्हें रोकने की आखिरी कोशिश में पूरी रफ़्तार से उनके पीछे दौड़ने लगा। उसके मन में बस एक ही बात थी, चाहे कुछ भी हो जाए, राजवीर और आर्या को तकलीफ़ नहीं होने देनी है!
"चलो... खोजते हैं!" गाँव पहुँचते ही दुर्गेश्वरने आदेश दिया।
सब लोग सूँघते हुए आगे बढ़ने लगे। उनकी नज़रें एक खास दिशा पर टिकी थीं, उत्तर दिशा, जहाँ राजवीर का घर था।
बलदेव ने तुरंत उनका रास्ता रोक लिया।
"रुको!" वह ज़ोर से चिल्लाया।
सब उसे घूर कर देखने लगे।
"क्या हुआ, बलदेव?" कालेश्वर ने पूछा।
"हम यहाँ शिकार करने आए हैं, कोई खोज करने नहीं!" बलदेव की आवाज़ स्थिर थी, लेकिन उसके अंदर एक तूफ़ान सा उठ रहा था।
"लेकिन... उस गंध का क्या?" दुर्गेश्वर गुर्राया। "यह हमारी जाति की नहीं है... यह कुछ और है!"
"छोड़ो उसे!" बलदेव ने बनावटी मुस्कान के साथ कहा। "हमें अपना ध्यान नहीं बटाना चाहिए। सिर्फ़ शिकार और कुछ नहीं।"
दुर्गेश्वर और कालेश्वर कुछ उलझन में थे।
उन्होंने बलदेव को शक की निगाह से देखा।
"क्या तुम्हें कुछ पता है?" दुर्गेश्वर ने पूछा।
"मैं बस इतना जानता हूँ कि अगर हम अपना रास्ता बदलेंगे, तो हमारी जाति ख़तरे में पड़ जाएगी।" बलदेव ने झूठी मुस्कान के साथ जवाब दिया।
बलदेव की छाती धड़क रही थी। उसके दोस्तों की तेज़ नाक और तेज़ इंद्रियाँ उन्हें सच्चाई के बहुत क़रीब ले जा रही थीं। एक बार उन्हें यकीन हो गया कि यहाँ एक रक्तपिशाच है, तो वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक वह खून से लथपथ न हो जाएँ। बलदेव बेचैनी से सोच रहा था, उसे कैसे रोके?
अगर वह झूठ बोलकर उन्हें गुमराह करता, तो वे कुछ देर के लिए तो रुक जाते, लेकिन ज़्यादा देर तक नहीं। उन्हें किसी दूसरे रास्ते से भटकाना पड़ता। शायद उन्हें किसी दूसरी दिशा में भेजना मुमकिन हो। लेकिन अगर वह उनसे सीधे भिड़ता, तो वे उस पर शक करते। अब हर पल कीमती था। उसने गहरी साँस ली, खुद को शांत किया और अगला कदम उठाने के लिए तैयार हो गया।
क्रमशः
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