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रक्तपिशाच का रक्तमणि ६७

एक रक्तपिशाच और मानव कन्या की प्रेम कहानी
भाग ६७

चाँदनी में जंगल डरावना लग रहा था। पेड़ों की परछाइयाँ लंबी होती जा रही थीं, और दुर्गेश्वर, कालेश्वर और उनके अन्य साथी जिस दिशा में भागे थे, उत्तर दिशा, वह और भी रहस्यमय लग रही थी। उस दिशा से आ रही गंध उन्हें बेचैन कर रही थी।

चाँदनी में नहाया जंगल अब और भी रहस्यमय लग रहा था। हवा तेज़ हो गई थी, और पेड़ों की परछाइयाँ ऐसे हिल रही थीं मानो वे भूत हों। हवा में एक अलग ही तीव्रता थी। दुर्गेश्वर और कालेश्वर अपने साथियों के साथ सिहर उठे। उनके नथुने फड़क उठे, उस उत्तर दिशा में कुछ अनोखा था।

वह गंध कोई साधारण गंध नहीं थी, बल्कि एक अनजानी सी थी जिसने उनकी हर इंद्रिय को जला दिया। उनके शरीर में शिकारी प्रवृत्ति जाग उठी, उनके रोंगटे खड़े हो गए, और कहीं गहरे में भय और क्रोध का एक अनोखा मिश्रण बन गया। वे किसी भी क्षण हमला करने को तैयार थे!

"यह गंध अलग है," दुर्गेश्वर गुर्राया। "ये किसी के खून का है... पर ये कोई आम इंसान नहीं है। ये ज़रूर कोई रक्तपिशाच होगा!"

उसके साथ के भेड़िये भी बेचैन हो गए। उनके कान खड़े हो गए और वे एक-दूसरे को देखने लगे। एक रक्तपिशाच ! उनकी जाति का कट्टर दुश्मन। अगर ये सचमुच रक्तपिशाच होगा , तो ये सब तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक वह पिशाच मर ना जाए।

बलदेव की छाती धड़कने लगी। वह उनके आगे बढ़ा और उन्हें रोकने की कोशिश की।

"रुको! तुम जिस तरफ जा रहे हो, वो मेरा गाँव है। अगर गाँव वालों को तुम पर शक हुआ, तो वो तुम्हें छोड़ेंगे नहीं!" उसने गंभीरता से कहा। "और अगर कुछ बुरा हुआ, तो हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।"

"हम गाँव वालों का क्या करें?" कालेश्वर गुर्राया। "उन्हें कुछ पता नहीं चलेगा। और अगर ये पिशाच गाँव में है, तो ये हमसे भी ज़्यादा उनके लिए ख़तरनाक है। उन्हें इसे बहुत पहले ही ढूँढ़कर खत्म कर देना चाहिए था!"

दुर्गेश्वर ने सिर हिलाया। "हाँ। इस दुनिया में पिशाच के लिए कोई जगह नहीं है। हमें इसका सफाया करना ही होगा!"

बलदेव के मन में भय की लहर दौड़ गई। वह ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा।

"अगर तुम गाँव में गए, तो कुछ भी अनहोनी हो सकती है। अगर गाँव वाले सावधान रहे, तो उन्हें तुम्हारे होने का पता चल जाएगा। और अगर तुम गलती से कुछ ग़लत कर बैठे, तो हमारा यहाँ से ज़िंदा बच निकलना नामुमकिन हो जाएगा।"

लेकिन दुर्गेश्वर और उसके साथी अब सुनने के मनोदशा में नहीं थे। उन्होंने एक-दूसरे को देखा और एक दहाड़ लगाई। पल भर में वे गाँव की ओर तेज़ी से दौड़ पड़े। उनके शक्तिशाली पैरों ने ज़मीन पर गहरे निशान छोड़ दिए और पल भर में वे घने जंगल को छोड़ गाँव पहुँच गए।

बलदेव ने आखिरी कोशिश में फिर से चिल्लाकर उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन दुर्गेश्वर और उसके साथी के आँखों में एक क्रूर चमक थी, और अब उनके भीतर बस एक ही भावना जल रही थी, एक शिकारी की। उन्होंने एक पल के लिए एक-दूसरे को देखा और फिर, एक ही गुर्राहट के साथ, एक सामूहिक दहाड़ हवा में भर गई। उनके बीच की बेचैनी अब आक्रामकता में बदल गई थी।

पल भर में, उन्होंने ज़मीन पर अपने पैर जमा लिए और हवा का सामना करते हुए गाँव की ओर दौड़ पड़े। उनकी अपार शक्ति ने ज़मीन पर गहरे निशान छोड़ दिए, घास फटने लगी और सूखी मिट्टी पर धूल उड़ गई। बलदेव उनके पीछे दौड़ने लगा, लेकिन वह जानता था, अब उन्हें रोकना उसके बस की बात नहीं थी।

बलदेव सोचने लगा, उसके दिमाग़ में बस एक ही बात घूम रही थी, अब क्या होगा? राजवीर अभी भी घर पर था। अगर ये भेड़िये वहाँ पहुँच गए तो क्या होगा? क्या आर्या सुरक्षित रहेगी?

अब इसका एक ही जवाब था, उसे भी गाँव पहुँचना है... और वह भी जल्द से जल्द!

बलदेव तेज़ी से दौड़ रहा था। उसके पैरों तले की मिट्टी उड़ रही थी, और उसकी साँसें मानो हाँफ रही थीं। वह जानता था, जिस दिशा में वह जा रहा है, वहाँ उसे अपने दोस्तों से लड़ना पड़ सकता है।

आगे दुर्गेश्वर, कालेश्वर और बाकी भेड़िये झाड़ियों के बीच से हवा की तरह दौड़ रहे थे। उनकी चाल की तेज़ी और उनकी आँखों की तीव्रता देखकर बलदेव की छाती धड़क रही थी। वे गाँव के करीब पहुँच रहे थे।

"रुको!" वह ज़ोर से चिल्लाया, लेकिन किसी ने उसकी आवाज़ नहीं सुनी।

गाँव की सीमा पर पहुँचते ही दुर्गेश्वर, कालेश्वर और उनके साथियों ने अपनी घ्राण इंद्रियों पर ज़ोर डाला। वह विशिष्ट गंध उनकी नाक में और भी साफ़ भरने लगी। अब यह और भी गहरा और जाना-पहचाना सा लग रहा था, एक पिशाच की मौजूदगी। उनकी शिकारी प्रवृत्तियाँ और भी तीव्र हो गईं। दुर्गेश्वर ने ज़मीन पर पंजा पटका और गुर्राया,

"वह यहीं कहीं है! गंध साफ़ है... यही पिशाच है!" बाकी लोगों ने सहमति में सिर हिलाया। उनकी आँखें अब लाल हो गई थीं, उनके शरीर तनाव से भर गए थे, और उनके अंदर की हिंसा अब बाहर निकलने का रास्ता तलाश रही थी।

"हमें उसे ढूँढ़ना होगा। उसे ज़िंदा छोड़ना हमारी जाति के लिए ख़तरा हो सकता है," दुर्गेश्वर गुर्राया।

बिना एक पल की देरी किए, वे सब धीरे-धीरे गाँव की गलियों में ढूँढ़ने लगे।

तभी, राजवीर आर्या को लेकर पास वाले पड़ोसी के घर गया आर्या खास रही थी। उसे पता भी नहीं था कि बाहर एक अलग ही तमाशा शुरू हो गया था।

जब राजवीर अंदर आया, तो बाहर के माहौल में तनाव नाटकीय रूप से बढ़ गया था। दुर्गेश्वर और उसके साथी अब उस घर के बहुत करीब थे। उनकी तीखी नाकों में आ रही गंध साफ़ होती जा रही थी।

"वह यहाँ है..." कालेश्वर ने धीरे से फुसफुसाया। सभी भेड़िये सतर्क हो गए। उनके मुँह से हल्की गुर्राहट निकली। उनके कदमों की नज़ाकत के साथ, वे घर के चारों ओर चक्कर लगाने लगे। अँधेरे में उनकी परछाईं और भी भयानक लग रही थी। इसी बीच, गाँव के कुछ लोगों ने इन भयानक परछाइयों को हिलते हुए देखा और हड़कंप मच गया। डर से भरे कुछ लोग चीखते हुए घर से बाहर निकल आए।

उनकी आवाज़ सुनकर भेड़ियों की शिकारी प्रवृत्ति जागृत हो गई और उन्होंने अचानक गाँव वालों पर हमला बोल दिया। कुछ ही पलों में गाँव में अफरा-तफरी मच गई। जागे हुए गाँव वालों ने लाठी, मशालों और पत्थरों से प्रतिरोध करना शुरू कर दिया। माहौल में व्याप्त भय अब गुस्से में बदल गया था। बलदेव ने यह देखा और उसके दिल में एक दर्द उठा। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो यह मुठभेड़ और भी भयानक रूप ले लेगी। लेकिन अब कुछ भी संभव नहीं था।

भेड़ियों की चमकीली पीली आँखें अँधेरे में चमक उठीं। भयभीत गाँव वालों ने एक-दूसरे को देखा और चीखने-चिल्लाने लगे।

"भेड़िये!............ भेड़िये ........भेड़िये आए हैं!"

जब भीड़ बाहर आई, तो कुछ भेड़िये रुक गए, लेकिन दुर्गेश्वर और कालेश्वर उनकी ओर दौड़े। उन्होंने गाँव वालों को ज़मीन पर पटक दिया और अपने जबड़ों से उनकी गर्दनें पकड़ने की कोशिश की।

कुछ ही पलों में गाँव में और भी ज़्यादा अफरा-तफरी मच गई। दूसरे घरों के लोग जाग गए। कुछ ने लाठियाँ उठाईं, कुछ ने मशालें जलाईं, और वे भी आगे दौड़ पड़े।

गाँव वालों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही थी। हाथों में मशालें, लाठियाँ और लोहे के हथियार लिए, वे गुस्से में आगे बढ़ रहे थे। भेड़ियों ने पहले तो विरोध करने की कोशिश की, लेकिन इतनी बड़ी भीड़ के सामने वे संख्या में कम पड़ गए। उनमें से एक गुर्राया,

"अगर ये गाँव वाले हमें घेर लेंगे, तो हमारे लिए अपना बचाव करना मुश्किल हो जाएगा!" दुर्गेश्वर ने गुस्से से भीड़ को देखा, लेकिन वह भी स्थिति से वाकिफ था। लोगों की संख्या ज़्यादा थी, और लोग अब डरे हुए नहीं थे, वे लड़ने के लिए तैयार थे।

"हमें वापस लौटना होगा!" कालेश्वर गुर्राया। पल भर की भी देर न करते हुए, सारे भेड़िये पीछे हटने लगे। कुछ उछल पड़े, कुछ अँधेरी परछाइयों में विलीन होकर जंगल की ओर भाग गए। गाँव वालों ने पत्थर फेंककर उन्हें भगाने की कोशिश की, लेकिन भेड़िये अब वापस लौट चुके थे। रात के अँधेरे में वे पल भर में गायब हो गए, लेकिन उनकी गुर्राहट की आवाज़ अभी भी हवा में गूँज रही थी।

बलदेव ने राहत की साँस ली। आज कम से कम एक बड़ी मुसीबत टल गई... लेकिन यह तो बस एक संघर्ष था। असली लड़ाई तो अभी बाकी थी!

क्रमशः

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