भाग ६८
दुर्गेश्वर, कालेश्वर और उनके साथी तेज़ी से जंगल की अंधेरी परछाइयों में घुस गए। उनके पीछे गाँव वालों की चीखें अभी भी उनके कानों में गूँज रही थीं। उनके लंबे नाखून ज़मीन को खरोंच रहे थे और उनके जबड़े गुस्से से कसे हुए थे। उन्हें यह पीछे हटना बिल्कुल पसंद नहीं था। लेकिन पूरे गाँव को इकट्ठा देखकर उन्हें लगा जैसे वे शिकार नहीं, बल्कि युद्ध हार गए हों।
कालेश्वर एक बड़े पेड़ के पास खड़ा हो गया और गहरी साँस ली, मानो उसे यह हार नापसंद थी ।
"ऐसा नहीं होना चाहिए था," वह गुर्राया।
उसके बाकी साथी भी रुक गए, उनकी आँखें अभी भी लाल और लाल थीं। दुर्गेश्वर ने अपने पंजे ज़मीन पर टिका दिए और सिर झुकाकर सोचने लगा। बलदेव एक तरफ खड़ा उनकी हरकतें देख रहा था। वह जानता था कि उनकी बेचैनी अलग थी। आज का पीछे हटना उनके लिए अपमान जैसा था, और इस अपमान का वह बदला लेना चाहते थे। लेकिन बदला कैसे ? और खून बहाकर? बलदेव के मन में चिंता की आग धधक रही थी।
जैसे ही जंगल पर पहली किरणें पड़ीं, भेड़ियों के शरीर काँपने लगे। उनके लंबे बाल गायब होने लगे, उनकी पीठ सीधी हो गई, उनके पंजे फिर से हाथ बन गए, और कुछ ही पलों में जंगल में खड़े क्रूर शिकारी अपने मूल मानव रूप में लौट आए। मानो रात का सारा उन्माद एक पल में शांत हो गया हो। हर कोई थका हुआ और विचारों में खोया हुआ लग रहा था। कुछ ने कपड़े पहनना शुरू कर दिया था, जबकि अन्य अभी भी झुके हुए थे और भारी साँसें ले रहे थे। वे हुए बदलाव का तनाव महसूस कर रहे थे।
लेकिन बलदेव एक बड़ी चट्टान पर चुपचाप बैठा था। उसने अपने हाथ कसकर अपनी छाती पर रखे हुए थे, और उसकी आँखों में गुस्सा साफ़ दिखाई दे रहा था। उसके मन में अनगिनत विचार उमड़ रहे थे, चाहे वह कितना भी समझाए, यह सब गाँव में प्रवेश कर चुके थे । और नतीजा उनके सामने था ? गाँव वाले जाग गए, उन्होंने विरोध किया, और अब वे सब वहीं बैठे अपनी-अपनी असफलता पर बड़बड़ा रहे थे।
बलदेव बिल्कुल भी खुश नहीं था। वह जानता था कि यह मामला यहीं नहीं रुकेगा। उसके दोस्तों की आँखों में, खासकर कालेश्वर की, अभी भी संतुष्टि नहीं थी। बलदेव को डर लगने लगा था कि अब वह क्या फैसला लेगा, क्योकि वह जो भी फैसला लेगा, बाकी लोग उसका साथ ज़रूर देंगे।
जंगल के शांत वातावरण में बलदेव की आवाज़ गूँजी। उसके शरीर में अभी भी गुस्सा उमड़ रहा था। वह खड़ा हुआ और अपने दोस्तों को घूरने लगा।
"कितनी बार कहा तुमसे?" वह गुस्से से चिल्लाया।
"तुम यहाँ सिर्फ़ शिकार करने आए थे ! हमें छुपकर रहना था, ऐसा व्यवहार करना था जिससे गाँव वालों का ध्यान न जाए। लेकिन तुम समझ नहीं रहे हो कि तुमने क्या किया। तुम गाँव में जाकर पिशाच को ढूँढ़ने की ज़िद क्यों कर रहे थे?"
उसके शब्दों में गुस्सा अब साफ़ दिखाई दे रहा था। उसने एक-एक करके सबके चेहरे देखे। कुछ लोग नज़रें नीची किए हुए थे, जबकि कुछ अभी भी अपनी हरकतों को सही ठहराने की तैयारी कर रहे थे, उन्हें अभी भी लग रहा था कि उन्होंने वहाँ से भागकर बहुत बड़ी गलती की है।
"अगर गाँव वालों के पास थोड़ा और समय होता, तो हम उनका पहला निशाना होते!" बलदेव ने आगे कहा,
"आज तो हम डर के मारे पीछे हट गए, लेकिन कल वे हथियार लेकर आएँगे। और अगर हममें से कोई उनको मिला, तो हमें अपनी जान गँवानी पड़ेगी। क्या तुम्हें पता है?" उसकी आवाज़ में दर्द था, वह दर्द जो उसकेही लोगों ने उसकी बात नहीं सुनी थी।
दुर्गेश्वर ने बलदेव की ओर देखा। बलदेव की बात से उसे यकीन हो गया। "तुम सही कह रहे हो। हमसे बहुत बड़ी गलती हुई। अगर हममें से कोई पकड़ा जाता, तो उसकी जान चली जाती, लेकिन शुक्र है कि हममें इतनी समझदारी थी कि हम तब तक पीछे हटते रहे जब तक सब एक साथ न आ जाएँ, अगर हम अपनी ताकत दिखाने जाते, तो हमारी जान चली जाती।"
दुर्गेश्वर शांति से बलदेव को देख रहा था, उसे अब अपनी गलती का एहसास हो रहा था। लेकिन कालेश्वर अब भी अपनी बात पर अड़ा था। उसने आगे बढ़कर कहा,
"गाँव में एक पिशाच है, और जब तक वह ज़िंदा है, हम चुप नहीं बैठ सकते। तुम चाहो तो दूर रह सकते हो, लेकिन हम उसे ढूँढ़ लेंगे, जब तक मैं उसे अपने पंजों से चीर न दूँ, मुझे चैन नहीं मिलेगा!"
कालेश्वर की आवाज़ में एक संकल्प था, एक निर्दयी ज़िद। उसकी आँखों में एक पागल सी चमक थी, यह सिर्फ़ हिंसा की इच्छा नहीं थी, यह दुश्मन को नीचा दिखाने की एकाग्रता थी। अंधेरी रात से पहचानी गई उसकी गंध अब भी उसके नथुनों में भरी हुई थी।
"मुझे अभी भी उसकी गंध आ रही है," उसने हिम्मत से कहा,
"वह यहीं है। हमसे ज़्यादा दूर नहीं। और जब तक वह ज़िंदा है, हम डरकर पीछे नहीं हट सकते।" उसके शब्द तीखे थे, मानो उसने खुद से कोई कसम खा ली हो।
कालेश्वर ने अपने साथियों की तरफ़ देखा। उसके शब्दों में दृढ़ता देखकर, दुर्गेश्वर और बलदेव को छोड़कर बाकी लोगों ने सहमति में सिर हिलाया। वे इस खोज से पीछे हटना नहीं चाहते थे।
"क्या तुम सब मेरे साथ हो?" उसने ज़ोर से पूछा।
उसी समय, बाकी लोगों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा और एक-एक करके उसकी ओर कदम बढ़ाने लगे। सिर्फ़ बलदेव और दुर्गेश्वर ही चुप थे। दुर्गेश्वर अपने भाई की अंध ज़िद को भाँप सकता था, और बलदेव के मन में अनगिनत विचार उमड़ रहे थे। उसे ज़ोर से लग रहा था कि अगर वे फिर से गाँव में घुसे, तो कुछ भयानक हो जाएगा। लेकिन अब उसे रोकने का समय बीत चुका था।
वह जानता था कि अगर उसने यह राज़ खोल दिया, तो भेड़ियों के झुंड में घमासान लड़ाई छिड़ जाएगी। राजवीर का असली रूप जानने के बाद, कालेश्वर और भी ज़्यादा ख़तरनाक हो जाएगा, और बाकी लोग भी उसके साथ खड़े हो जाएँगे। इससे बचने के लिए, उसे सही समय का इंतज़ार करना होगा। उसने मन ही मन सोचा, अगर मैंने अभी कुछ कहा, तो वे सुनेंगे नहीं, बल्कि मुझ पर शक करेंगे। इसलिए, राजवीर से बात किए बिना मैं कुछ नहीं कर सकता था।
उसका मन लगातार उलझता जा रहा था। उसके सामने, कालेश्वर और उसके साथी एकमत होकर गाँव लौटने की तैयारी कर रहे थे। उनका एकमात्र लक्ष्य था, उस पिशाच को ढूँढ़कर उसका नाश करना। बलदेव को लग रहा था कि उनकी यह अंध ज़िद अंततः महाविनाश का कारण बनेगी। लेकिन वह अकेला उन्हें रोक नहीं सकता था। इसलिए, उसने अपना गुस्सा पी लिया और खुद को शांत रखने की कोशिश की। अब उसे बस एक मौके की ज़रूरत थी, राजवीर तक पहुँचने की। तब तक, वह चुप रहने वाला था, लेकिन उसकी आँखें और कान लगातार सतर्क थे।
बलदेव आह भरते हुए उठ खड़ा हुआ। वह जानता था कि अगर उसने अभी कोई प्रतिक्रिया दी, तो कालेश्वर उसे सीधे संदेह के भंवर में घसीट ले जाएगा। वह सीधा जंगल के उस पार चला गया, मानो इस मामले से उसका कोई लेना-देना ही न हो। लेकिन असल में, उसके मन में बस एक ही विचार घूम रहा था, उसे जल्द से जल्द राजवीर के पास पहुँचना है।
उसने पीछे मुड़कर देखा। दुर्गेश्वर और बाकी लोग अभी भी कालेश्वर की बातों का समर्थन कर रहे थे। उनके चेहरों पर तीव्रता का मिश्रण था, क्रोध, आत्मविश्वास और उत्साह का एक संकेत। वे गाँव में फिर से प्रवेश करने की तैयारी कर रहे थे। बलदेव की छाती धड़क रही थी। ये सब बातें राजवीर को पता चलनी चाहिए वह फिर से चुपचाप चलने लगा, लेकिन अब हर कदम के साथ वह अगली लड़ाई के लिए और ज़्यादा सतर्क होता जा रहा था।
क्रमशः
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