भाग ६९
बलदेव ने एक लंबी साँस छोड़ी और अपने दोस्तों की तरफ़ देखा। "तुम यहीं रुको," उसने दृढ़ता से कहा। "मैं पहले गाँव जाकर देखूँगा कि क्या हाल है। अगर कोई ख़तरा नहीं होगा, तो मैं तुम्हें आने का इशारा करूँगा। लेकिन तब तक, कोई भी गाँव की तरफ़ न आए।"
कालेश्वर बलदेव की बातों को घूरता रहा। उसकी आँखों में अभी भी गुस्से की चिंगारी थी।
"बलदेव, तुम हमें रुकने के लिए कह रहे हो, लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या हमें यहीं बैठकर इंतज़ार करना चाहिए? वह पिशाच अभीभी ज़िंदा है, और अगर हम कुछ नहीं करेंगे, तो वह और भी ज़्यादा शक्तिशाली हो जाएगा!"
बलदेव ने उसे रोकने के लिए हाथ उठाया। "मैं समझता हूँ, कालेश्वर, लेकिन देखो, अगर हम अभी गाँव में घुस गए और लोगों ने हमें पहचान लिया, तो वे हमारे ख़िलाफ़ हो जाएँगे। वे हमें पहले से ही शक की निगाह से देख रहे हैं। अगर वे हम पर फिर से हमला करते हैं, तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा, गाँव वालों के ख़िलाफ़ और उस पिशाच के ख़िलाफ़। हम अपना ही नुकसान करेंगे। इसके बजाय, हमें सोच-समझकर कदम उठाने चाहिए।"
यह सुनकर कालेश्वर ने सिर घुमाया और दुखी होकर गुर्राया। "ठीक है, बलदेव। लेकिन याद रखना, अगर तुम शाम तक नहीं लौटे, तो हम खुद गाँव में घुस जाएँगे। और फिर, चाहे जो भी नतीजा हो, हम उस पिशाच को ढूँढ़कर मार डालेंगे!" उसकी आवाज़ में दृढ़ निश्चय था।
बलदेव को इसकी उम्मीद थी। उसने बस सिर हिलाया। "मैं समय पर वापस आ जाऊँगा। ऐसा कुछ मत करो। मुझे समय दो। मैं वापस आ जाऊँगा, बस शांत रहना और किसी को जल्दबाज़ी मत करने देना।" इस सांत्वना के साथ, वह जंगल से बाहर निकल गया।
उसने अपने दोस्तों पर एक आखिरी नज़र डाली और फिर सावधानी से गाँव की ओर चल पड़ा। सूरज आसमान में उग रहा था, और बलदेव के मन में विचारों का एक तूफ़ान उठा, गाँव वालों का गुस्सा, उसके दोस्तों की ज़िद, और खुद उन दोनों में फँस जाना। इसका अंत कैसे होगा? यह तो समय ही बता सकता था।
गाँव के चौक में एक बड़ी भीड़ जमा हो गई थी। सबके चेहरों पर चिंता साफ़ दिखाई दे रही थी। कुछ लोग हाथों में लाठियाँ लिए खड़े थे, तो कुछ धीमी आवाज़ में फुसफुसा रहे थे। सरपंच गोविंदराव बीच में खड़े सबकी बातें सुनने की कोशिश कर रहे थे।
"मैंने अपनी आँखों से देखा!" रघुनाथ काका काँपते हुए बोले। "मैंने ज़िंदगी में भेड़ियों का इतना बड़ा झुंड कभी नहीं देखा था! वे गाँव में कैसे घुस आए?"
"सच में, यह कोई साधारण बात नहीं लगती," मोहनराव ने सोचते हुए कहा। "इस जंगल में अब तक इतने भेड़िये नहीं थे। पिछले कुछ सालों में उनके होने का कोई नामोनिशान नहीं था। फिर अचानक एक ही रात में ये सब कहाँ से आ गए?"
"कुछ बड़ा हो रहा है," बंडू ताशीदार ने कहा। "क्या भेड़ियों का यह झुंड गाँव पर हमला करने आया था? अगर लोग रात में बाहर होते तो क्या होता?"
"वे भूखे होंगे," एक युवक ने अनुमान लगाया।
"वे यहाँ इसलिए आए होंगे क्योंकि गाँव के पास के जंगल में खाना नहीं होगा।"
"नहीं!" नारायण दादू ने दृढ़ता से कहा। "अगर भेड़िये खाने की तलाश में आते, तो हमारे पालतू जानवरों पर हमला कर देते। लेकिन उन्होंने इंसानों पर हमला करने की कोशिश की! यह तो कुछ और ही है!"
"जो भी हो," सरपंच ने गंभीर स्वर में कहा, "हमें इसका कोई न कोई हल निकालना ही होगा। अगर भेड़िये फिर से गाँव में घुस आए, तो ज़रूर बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी कर देंगे।" "हम सबको रात में गाँव में पहरा देना चाहिए, और हाँ, अगर किसी के पास कोई नई जानकारी हो, तो मुझे ज़रूर बताएँ।"
गाँववाले एक-दूसरे को देखने लगे। वे डर के साये में खड़े थे, सबको आने वाली विपत्ति का आभास हो रहा था।
गाँव में हर जगह एक अलग ही माहौल बन गया था। कुछ गाँव वाले अभी भी मंदिर के पास फुसफुसा रहे थे। सबके चेहरों पर चिंता साफ़ दिखाई दे रही थी।
"इतने साल हो गए, पर इतने भेड़िये कभी नहीं आए," एक गाँव वाले ने कहा। "वे न सिर्फ़ जंगल में, बल्कि अभी वह गाँव की सीमा में भी घुस आए हैं। हमें कुछ करना ही होगा!"
"हाँ," दूसरे ने पुष्टि की। "अगर हमने समय रहते कार्रवाई नहीं की, तो वे हमारे सारे मवेशियों और जानवरों को नष्ट कर देंगे। अब हमें हथियार उठाने ही होंगे!"
गाँव में चर्चा तेज़ होने लगी। कुछ लोग डरे हुए थे, तो कुछ गुस्से में।
"अगर हम ऐसे ही बैठे रहे, तो वे कल फिर आएँगे!" भाऊसाहेब ने ऊँची आवाज़ में कहा। "भेड़िये आज आए, कल कुछ और आएगा। हमें कुछ करना ही होगा!"
"लेकिन क्या करें?" गणपत काका ने चिंतित स्वर में कहा। "भेड़िये जंगल के जानवर हैं। उन्हें बेवजह मारना ग़लत है। लेकिन अगर वे फिर से गाँव पर हमला करते हैं, तो हमें उनके ख़िलाफ़ कदम उठाने होंगे।"
"अगर हम एकजुट हो जाएँ, तो उन्हें आसानी से भगा सकते हैं!" रामशरण दूधवाले ने दृढ़ता से कहा। "कल रात जब हम लाठियाँ लेकर आगे बढ़े थे, तो वे डरे हुए थे, है ना? हमें इसी तरह संगठित रहना होगा।"
"हाँ, लेकिन हम अकेले लाठियाँ लेकर नहीं भागेंगे," किसी ने सोचते हुए कहा। "गाँव की सीमा पर कुछ पहरेदार तैनात करने चाहिए। अगर हमें कोई संदिग्ध गतिविधि दिखाई दे, तो हमें तुरंत दूसरों को सूचित करना चाहिए।"
"और हाँ," एक बुज़ुर्ग सज्जन आगे बढ़ते हुए बोले, "पिछले कुछ सालों से यहाँ भेड़ियों का नामोनिशान नहीं रहा। तो वे अचानक कहाँ से आ गए? इसके पीछे कोई रहस्य ज़रूर है, हमें उसे पता लगाना होगा।"
सब एक-दूसरे को देखने लगे। कई सवाल थे, लेकिन किसी के पास जवाब नहीं था।
यह बातचीत सुनते ही बलदेव की छाती धड़कने लगी। अगर गाँव वाले एकजुट होकर भेड़ियों पर काबू पाने का फैसला कर लें, तो बहुत बड़ी मुसीबत आ जाएगी। उसे जल्द से जल्द राजवीर से मिलना होगा।
बलदेव जल्दी से राजवीर के घर गया। वहाँ पहुँचते ही उसने उसे सारी सच्चाई बता दी। जंगल में क्या हुआ था, भेड़ियों का गुस्सा, कालेश्वर की ज़िद और अब गाँव वालों का बढ़ता गुस्सा, यह सब सुनकर राजवीर कुछ देर चुप रहा। खिड़की के बाहर भोर की हल्की रोशनी फैल रही थी, लेकिन उसके मन में अँधेरा छा गया था। गाँव वालों का बढ़ता शक, भेड़ियों का गुस्सा और कालेश्वर की ज़िद, वह इन्हीं सब के बारे में सोचता रहा।
अगर ऐसा ही चलता रहा, तो बहुत बड़ी मुसीबत आ जाएगी। गाँव वाले अब सतर्क हो गए थे, वे भेड़ियों को दोबारा गाँव में नहीं घुसने नहीं देने वाले थे। दूसरी ओर, कालेश्वर और उसके साथी रक्तपिशाच को ढूँढ़ने के अपने निश्चय में अंधे हो चुके थे। उन्हें रोकना ज़रूरी था। राजवीर ने गहरी साँस ली। वह बलदेव की ओर मुड़ा और गंभीर स्वर में बोला,
"अब समय आ गया है। उन्हें सच बतानाही होगा, वरना इस लड़ाई के खत्म होने से पहले ही खून-खराबा हो जाएगा।"
"वे तुम्हें ढूँढ़ रहे हैं, राजवीर। अगर वे तुम्हें पकड़ लेंगे, तो तुम्हें मार डालेंगे।" बलदेव ने चिंतित होकर कहा।
राजवीर ने गहरी साँस ली। "हमें कुछ करना होगा, हमें भेड़ियों और गाँव वालों को मनाना होगा।"
"तो तुम्हारा क्या फैसला है?"
"मैं उनके सामने जाऊँगा," राजवीर ने दृढ़ता से कहा। "मैं उन्हें सच बताऊँगा। मैं उनका दुश्मन नहीं हूँ। असली दुश्मन सहस्त्रपाणि है, और हमें मिलकर उससे लड़ना होगा।"
बलदेव थोड़ा उलझन में था। "क्या तुम्हें यकीन है? क्या वे तुम्हारी बात सुनेंगे?"
"बिना कोशिश किए हमें पता नहीं चलेगा," राजवीर ने कहा। "उन्हें मेरा असली इरादा समझना होगा। मैं युद्ध से बचना चाहता हूँ, लेकिन इसके लिए हम सबको एक साथ आना होगा।"
बलदेव ने आँखें बंद कर लीं और सोचा, फिर सिर हिलाया। "ठीक है। लेकिन मैं तुम्हारे साथ रहूँगा। अकेले मत जाना।"
राजवीर ने विश्वास से उसकी ओर देखा। "मैं कभी अकेला नहीं था, बलदेव। तुम हमेशा मेरे साथ हो। और यही हमारी असली ताकत है।"
अब, मैदान तैयार हो चुका था। एक तरफ भेड़िये थे, दूसरी तरफ वोह, अब दोनों कैसे मुकाबला करेंगे, यह तो समय ही बताने वाला था।
क्रमशः
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