भाग ७०
राजवीर ने दृढ़ निश्चय कर लिया था। अब सच छिपाने का कोई फ़ायदा नहीं था। बलदेव ने उसे गौर से देखा। राजवीर की आँखों में दृढ़ संकल्प साफ़ दिखाई दे रहा था। उसने बहुत कुछ खोया था, लेकिन अब खोने को कुछ भी नहीं था। सच छिपाने का कोई फ़ायदा नहीं था। अब तक वह अपनी असली पहचान छिपाकर जी रहा था, लेकिन अब वह अपनी ही परछाई से भाग नहीं सकता था।
भेड़ियों के सामने जाकर उनसे सीधे संवाद करना ही उचित होगा, वरना इस अँधेरे के युद्ध में बेवजह खून-खराबा होगा। उसने गहरी साँस ली और बलदेव की ओर देखते हुए कहा,
"हमें उन्हें समझाना होगा। उन्हें पता होना चाहिए कि मैं उनका दुश्मन नहीं हूँ।" बलदेव ने भी थोड़ा सिर हिलाया। उसे भी लगा कि यही क्षण निर्णायक है। अब दोनों में से कोई भी पीछे नहीं हट सकता था।
बलदेव ने राजवीर को संदेह से देखा। उसके शब्दों के पीछे की खामोशी उसे बेचैन कर रही थी। क्या राजवीर इतनी आसानी से मौत को स्वीकार करने को तैयार था? या उसे सचमुच विश्वास था कि वह भेड़ियों को मना सकता है? बलदेव जानता था कि दुर्गेश्वर, कालेश्वर और उसके साथियों का क्रोध कभी भी भड़क सकता है।
अगर उन्हें लगता कि राजवीर के वजह से सभी लोग खतरे में हैं, तो वे बिना किसी हिचकिचाहट के उसकी जान ले लेते। लेकिन राजवीर के चेहरे पर डर का ज़रा भी निशान नहीं था। वह अपने फैसले पर अटल था। बलदेव ने गहरी साँस ली और बेबसी से सिर हिलाया।
"ठीक है," उसने कहा। "लेकिन मैं वहाँ रहूँगा। अगर कुछ अनहोनी हुई, तो मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूँगा।"
राजवीर हल्के से मुस्कुराया और उसके कंधे पर हाथ रखा। "यही फ़र्क़ है मुझमें और असली नरभक्षी पिशाचों में, बलदेव," उसने धीरे से कहा।
"मैं अपनी जान बचाने के लिए किसी की बलि नहीं देना चाहता। मैं भेड़ियों को अपना पक्ष समझा दूँगा। अगर वे सुनेंगे, तो हम सब मिलकर असली दुश्मन को हरा देंगे। और अगर वे नहीं सुनेंगे... तो मैं लड़ूँगा। लेकिन मरने के डर से भागूँगा नहीं।" बलदेव अभी भी संदेह में था, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। अब दोनों जंगल जाने के लिए तैयार थे।
जैसे ही राजवीर ने भीतरी कमरे में कदम रखा, आर्या उसके सामने प्रकट हुई। उसकी आँखों में डर साफ़ दिखाई दे रहा था। "तुम कहाँ जा रहे हो?" उसने पूछा।
"अपनी सच्चाई का सामना करने," उसने धीरे से कहा।
"नहीं, राजवीर!" आर्या जल्दी से बोली। "वे तुम्हें समझ नहीं पाएँगे। वे तुम्हें मार डालेंगे!"
"अगर मैं उनसे बात नहीं करूँगा, तो वे गाँव में वापस आ जाएँगे, और फिर यहां बहुत बड़ा कत्लेआम होगा," राजवीर ने उसे समझाया।
"अगर मुझे इसे रोकना है, तो मुझे उनके सामने जाना ही होगा।"
"लेकिन....." आर्या अभी भी लड़खड़ा रही थी।
राजवीर ने उसके कंधे पर हाथ रखा। "तुम मेरे मन की बात समझ रही हो, है ना? तुम जानती हो कि मैं कौन हूँ। मैं तुम्हारा रक्षक हूँ, तुम्हारा दुश्मन नहीं। और मैने उन भेड़ियों को भी यही बात कहने का फैसला किया है।"
आर्या ने आँखें बंद कर लीं और गहरी साँस ली। "ठीक है," उसने धीरे से कहा। "लेकिन सावधान रहना।"
राजवीर हल्के से मुस्कुराया और सिर हिलाकर बलदेव के साथ जंगल की ओर चल पड़ा।
रात के अँधेरे में पेड़ों की परछाइयाँ और भी गहरी लग रही थीं। सभी भेड़िये उन अँधेरी परछाइयों में चुपचाप बैठे थे, लेकिन उनके शरीर में तनाव साफ़ दिखाई दे रहा था। उनकी आँखें एक-दूसरे से कुछ बेचैनी से संवाद कर रही थीं, आधी बेचैनी से और आधी आक्रामकता से। दुर्गेश्वर ज़मीन से एक पत्थर उठाकर अपनी उँगलियों के बीच घुमा रहा था, उसका माथा चोटों से भरा हुआ था। कालेश्वर, हालाँकि, पूरी तरह शांत था, लेकिन कठोर दिख रहा था।
उसकी आँखों में एक उबलता हुआ गुस्सा दिखाई दे रहा था। उसके आस-पास बैठे उसके बाकी साथी भी सतर्क थे। कल रात जो कुछ भी हुआ था, उसने उनके आत्मसम्मान को हिलाकर रख दिया था। वे इतने सारे लोगों के सामने पीछे हटना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। अब वे एक निर्णायक मोड़ पर थे, आगे क्या करें? बदला लें या इंतज़ार करें? लेकिन एक बात तो तय थी, वे अब किसी पर भरोसा नहीं करना चाहते थे।
जैसे ही राजवीर और बलदेव आगे आए, कालेश्वर उन्हें घूरने लगा। "यह राजवीर यहाँ कैसे आ गया?" उसने ठंडे स्वर में पूछा।
"यह मेरा दोस्त है," बलदेव ने आगे कहा। "और यह तुम सबका भी दोस्त बन सकता है।"
"कैसे?" दुर्गेश्वर ने आँखें सिकोड़ते हुए पूछा। "उसका घर उसी जगह था जहाँ उस पिशाच के शरीर से गंध आ रही थी। शायद यह वह तो नहीं।"
यह सुनकर पूरा गिरोह सतर्क हो गया। कुछ लोग इंसानी रूप में गुर्राने लगे।
राजवीरने चुप रहने का इशारा करने के लिए हाथ उठाया। "हाँ," उसने साफ़ कहा।
"मैं इंसान नहीं हूँ। मैं पिशाच हूँ। लेकिन मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ।"
"झूठा! तुम्हें ज़िंदा रखना मुसीबत में डालने जैसा है!" कालेश्वर गुस्से से गुर्राया और उस पर झपटा।
तभी, बलदेव बिच में आया। "रुको, कालेश्वर!" वह चिल्लाया।
"राजवीर हमारा दुश्मन नहीं है। हम उससे जितनी नफ़रत करते हैं, वह एक पिशाच सहस्त्रपाणि से भी उतनी ही नफ़रत करता है!"
दुर्गेश्वर और उसके साथी अब भी चुपचाप बैठे थे, लेकिन उनकी आँखें भावपूर्ण थीं, संदेह, क्रोध और भ्रम का मिश्रण पता चल रहा था। कालेश्वर ने गहरी साँस ली और बलदेव को घूरा।
"तो तुम कह रहे हो कि यह पिशाच्च हमारा दोस्त है?" उसकी आवाज़ में अविश्वास था। उसने फिर राजवीर की ओर देखा, मानो उसकी आँखों में झूठ ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा हो।
"वह हम जैसा नहीं है। वह इंसानी खून पर जीता है। तो हम उस पर भरोसा क्यों करें?"
बलदेव ने उसके शब्दों में कड़वाहट पहचान ली, लेकिन वह चुप रहा।
"राजवीर और सहस्त्रपाणि में फ़र्क़ है," उसने दृढ़ता से कहा।
"राजवीर को सत्ता नहीं चाहिए, उसे खूनी वर्चस्व नहीं चाहिए। वह सिर्फ़ ज़िंदा रहने के लिए लड़ता है। और अगर हम उसके साथ खड़े हों, तो हम भी सहस्त्रपाणि एक क्रूर दुश्मन का सामना कर सकते हैं। सहस्त्रपाणि न सिर्फ़ तुम्हारा, बल्कि सभी जीवों का नाश करने की कोशिश कर रहा है। अगर हम सब एकजुट हो जाएँ, तो शायद हम उसे रोक सकें।"
बलदेव के शब्दों ने माहौल में एक अलग ही गंभीरता फैला दी। अब सब राजवीर की ओर देख रहे थे, क्या वह सचमुच उनका दुश्मन था, या उनका सबसे अहम सहयोगी?
एक पल के लिए सब स्तब्ध रह गए।
"सहस्त्रपाणि?" दुर्गेश्वर ने संदेह से पूछा।
"हाँ," बलदेव ने आगे कहा। "सहस्त्रपाणि हमारा असली दुश्मन है। उसी ने तुम्हारे साथियों को मारा था, और वही इस ज़मीन पर अपना राज कायम करना चाहता है। राजवीर उसके खिलाफ खड़ा है, और इसीलिए वह हमारे काम आ सकता है।"
कालेश्वर की आँखें गुस्से से लाल थीं। उसकी मुट्ठियाँ भींची हुई थीं, और क्रोध की ज्वालाएँ उसके पूरे शरीर में धधक रही थीं। "हम अपनी लड़ाई में कभी पीछे नहीं हटते!" वह ज़ोर से चिल्लाया।
"हम जानते हैं कि सहस्त्रपाणि हमारा दुश्मन है। लेकिन मैं यह कभी स्वीकार नहीं करूँगा कि हमें उससे लड़ने के लिए किसी पिशाच की मदद लेनी पड़े!" उसके कुछ साथी भी उसके समर्थन में गुर्राने लगे। उनके लिए पिशाच का मतलब सिर्फ़ विनाश, भय और मृत्यु था। उनके खून में गहराई तक समाई इस दुश्मनी की भावना को पल भर में बदलना नामुमकिन था।
राजवीर ने शांति से गहरी साँस ली। वह बिना किसी डर के कालेश्वर की आँखों में देख रहा था।
"जैसे मैं श्राप से पैदा हुआ हूँ, वैसे ही तुम्हारा अस्तित्व भी उसी तरह है," उसने धीमी लेकिन शक्तिशाली आवाज़ में कहा।
"भले ही तुम और मैं अलग-अलग जातियों से हैं, फिर भी हमारा एक साथ आना ज़रूरी है। वरना हम दोनों इस युद्धभूमि में फँस जाएँगे। अगर तुम मुझे अपना दुश्मन समझते हो? तो मुझे मार डालो। लेकिन उससे पहले, मुझे यह बताओ, जब सहस्त्रपाणि तुम्हारे पूरे कुल का नाश करने आएगा, तो उससे लड़ने के लिए कौन बचेगा?" राजवीर के शब्दों ने एक पल के लिए सबको चुप करा दिया। जंगल में सिर्फ़ हवा की हल्की सरसराहट और कीड़ों की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।
एक गंभीर सन्नाटा छा गया।
दुर्गेश्वर और कुछ अन्य लोग सोच रहे थे। हालाँकि, कालेश्वर अभी भी पूरी तरह तैयार नहीं था।
"हमें कैसे पता कि तुम सचमुच हमारे दुश्मन नहीं हो?" उसने संदेह से पूछा।
राजवीर ने दृढ़ता से उत्तर दिया, "मैं उससे लड़ूँगा। लेकिन उसके लिए तुम्हें मेरे पक्ष में आना होगा।"
क्रमशः
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