भाग ७१
कालेश्वर की आँखें क्रोध से जल रही थीं। उसने अपने साथियों की ओर देखा।
"यह तो पिशाच है! इसके विनाश से ही हम सुरक्षित रहेंगे," वह दहाड़ा। उसकी आवाज़ में साफ़ नफ़रत थी।
दुर्गेश्वर और कुछ दूसरे भेड़िये असमंजस में थे, लेकिन वह सोच में पड़ गए थे। उन्होंने बलदेव और राजवीर दोनों की बातें सुन ली थीं, लेकिन उन्हें यह स्वीकार करना मुश्किल लग रहा था। एक ओर, वे कालेश्वर के शब्दों में क्रोध और आक्रामकता साफ़ देख सकते थे, तो दूसरी ओर बलदेव द्वारा कहे गए सत्य का भार भी महसूस कर सकते थे।
जंगल की अंधेरी छाया में खड़े वे सभी योद्धा एक बड़े फ़ैसले की कगार पर थे। उनके मन में एक द्वंद्व चल रहा था, किसे स्वीकार करें? अपने पूर्वजों द्वारा सिखाए गए कठोर नियमों का पालन करें या अपनी आँखों के सामने खड़े सत्य को स्वीकार करें? कुछ भेड़िये एक-दूसरे को ऐसे देख रहे थे, मानो उन्हें लगता हो कि उन्हें अपने पड़ोसी की आँखों में जवाब मिल जाएगा। लेकिन जवाब कहीं नहीं मिल रहा था।
"अगर राजवीर सचमुच हमारा दुश्मन होता, तो हम पर हमला कर चुका होता," दुर्गेश्वर ने आखिरकार चुप्पी तोड़ते हुए कहा।
"वह बिना कुछ छिपाकर हमारे सामने खड़ा है। बलदेव तो हमारा ही आदमी है। वह हमें कभी धोखा नहीं देगा। हमें उसकी बात शांति से सुननी चाहिए।" कुछ लोग चुपचाप उसकी बातों से सहमत हो रहे थे, लेकिन कालेश्वर का गुस्सा कम होता नहीं दिख रहा था। उसने दाँत पीसकर राजवीर की तरफ मुँह कर लिया।
राजवीर कुछ नहीं बोला। वह शांति से खड़ा रहा, उसकी आँखों में डर का ज़रा भी निशान नहीं था। कालेश्वर उस पर हमला करने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन बलदेव उसके रास्ते में दौड़ पड़ा। "कालेश्वर , रुक जाओ!" बलदेव ने ज़ोर से चिल्लाकर उसे रोका। "क्या तुम समझते हो कि तुम जो कर रहे हो उसका अंजाम क्या होगा? यह हमारा दुश्मन नहीं है!"
कालेश्वर गुस्से से भर गया। उसकी आँखों में ईर्ष्या भरी थी। "बलदेव, तुम उसका बचाव क्यों कर रहे हो? वह एक पिशाच है! उसका अस्तित्व ही हमारे लिए ख़तरा है!" वह गुर्राया। उसकी मुट्ठियाँ भींची हुई थीं और असहनीय क्रोध उसके शरीर से फूट रहा था। दुर्गेश्वर और उसके बाकी साथी भी सतर्क थे। वातावरण में एक अनजाना तनाव व्याप्त था। ऐसा लग रहा था मानो किसी भी क्षण भीषण युद्ध छिड़ सकता है।
लेकिन बलदेव शांत था। उसने एक कदम आगे बढ़कर कालेश्वर की आँखों में देखा। "अगर मैं तुम्हारी जगह होता, तो मुझे भी ऐसा ही लगता," उसने शांत लेकिन दृढ़ स्वर में कहा।
"लेकिन तुम भूल रहे हो कि इसने ही हमारे लोगों की रक्षा की थी। हम सहस्त्रपाणि को जितना अपना दुश्मन मानते हैं, उतना ही वह भी उसका दुश्मन है। अगर हम इसे खत्म कर देंगे, तो सहस्त्रपाणि को हमें मारने के लिए कोई और चाल नहीं चलनी पड़ेगी। हम ही अपनी शक्ति को तोड़ रहे हैं, कालेश्वर! अगर तुम्हारे क्रोध ने तुम्हारे निर्णय को भ्रमित कर दिया है, तो फिर से सोच लो।" बलदेव का दृढ़ निश्चय देखकर कुछ लोगों ने उनका साथ दिया, लेकिन कालेश्वर का क्रोध शांत नहीं हुआ। वह अभी भी गुस्से में था।
कालेश्वर गुस्से से गुर्राया। "तुम हमारे खिलाफ खड़े हो? एक पिशाच के लिए? तुम पागल हो गए हो, बलदेव!" उसने दाँत पीसते हुए कहा। "तुम अपनी ही जाति के साथ विश्वासघात कर रहे हो!"
बलदेव ने उसे घूरकर देखा। "अगर मैं तुम्हें गद्दार दिख रहा हूँ, तो असल में मैं किसे धोखा दे रहा हूँ ये सोचो? तुम सबको, या उस सच्चाई को जिसे तुम देखने से इनकार करते हो?" उसने धीरे से कहा। "क्या तुम सच सुनने के लिए तैयार हो?"
कालेश्वर बिना कुछ कहे उसे घूरता रहा। बाकी भेड़िये अब उत्सुकता से सुन रहे थे।
बलदेव ने सबकी तरफ देखा और अपनी आवाज़ में वज़न डाला। "कुछ महीने पहले, हमारे गाँव खिरसू में एक भयानक हमला हुआ था। त्रिकाल नाम के एक पिशाचने पूरे गाँव को तबाह करने की कोशिश की थी। उस नरसंहार में गाँव वाले एक-एक करके मर रहे थे। लेकिन क्या तुम जानते हो कि तब मदद के लिए कौन आया था? राजवीर! वह इसी गाँव के लिए लड़ा था। उसने त्रिकाल को रोका और गाँव को बचाया। अगर यह कोई दुश्मन होता, तो वह चुपके से उसी समय गाँव को तबाह कर सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उल्टा, उसने हमारे दुश्मन से लड़ाई लड़ी। और आज भी वह हमारे ही दुश्मन सहस्त्रपाणि से लड़ रहा है!"
बलदेव की बातें सुनकर जंगल में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। पेड़ों के पत्तों के बीच से हवा का झोंका आया, लेकिन उस पल वह आवाज़ नहीं, बल्कि विचारों की फुसफुसाहट जैसी लगी। दुर्गेश्वर और कुछ दूसरे भेड़िये सोच में पड़ गए। बलदेव की बात में सच्चाई थी। गाँववालों ने उन्हें कुछ महीने पहले त्रिकाल के हमले के बारे में बताया था, और उन्हें आज भी वह याद है।
उस रात, गाँव खून से नहा रहा था, लोग डर से काँप रहे थे, और मौत के साये में अकेला योद्धा खड़ा लड़ रहा था, 'राजवीर'। अगर वह सचमुच उनका दुश्मन होता, तो त्रिकाल के साथ मिलकर गाँव को तबाह कर देता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने उस राक्षस से भीषण युद्ध किया और गाँव को बचा लिया।
"क्या तुम सच में सोचते हो कि हमारा असली दुश्मन राजवीर है?" बलदेव ने फिर पूछा। उसकी आवाज़ स्पष्ट और दृढ़ थी, बिना किसी हिचकिचाहट के। "अगर हम आज राजवीर को मार देंगे, तो कल हम अकेले रह जाएँगे। हमारा असली दुश्मन सहस्त्रपाणि है। और वह बहुत चालाक है। उसने हमें आपस में लड़ाने की साज़िश रची है। अगर हम उसके जाल में फँस गए, तो हममें से कोई भी नहीं बचेगा। फिर तुम ही तय करो, क्या तुम असली दुश्मन से लड़ना चाहते हो या खुद को खत्म करना चाहते हो?"
दुर्गेश्वर ने एक बार दूसरों की तरफ देखा। कुछ अभी भी असमंजस में थे, लेकिन कुछ बलदेव की बातों से सहमत थे। "मैंने सुना है," एक बूढ़े भेड़िये ने धीरे से सिर हिलाते हुए कहा।
"राजवीर ने सचमुच गाँव को बचाया। अगर वह सहस्त्रपाणि का सहयोगी होता, तो उसी समय गाँव पर हमला कर देता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसका मतलब है कि हम ग़लत व्यक्ति को दुश्मन समझ रहे हैं।" बाकी लोग भी मान गए, और धीरे-धीरे एक-एक करके वे बलदेव का साथ देने लगे। हालाँकि, कालेश्वर का चेहरा अभी भी गुस्से से भरा था। वह दाँत पीसकर अचानक उठ खड़ा हुआ।
"अगर तुम इस विश्वासघात को स्वीकार करते हो, तो मैं इसमें शामिल नहीं हो सकता!" वह चिल्लाया और गुस्से से उबलता हुआ वहाँ से जाने लगा।
सभी भेड़िये कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गए। उनमें से कुछ ने एक-दूसरे को देखा। कुछ को यह बात पता थी, लेकिन उन्होंने इस नज़रिए से कभी सोचा ही नहीं था।
"यह सच है," दुर्गेश्वर ने आगे बढ़ते हुए कहा। "मैंने भी उस रात हुए हमले के बारे में सुना था। राजवीर गाँव के लिए लड़ा था। अगर उसका इरादा गाँव को तबाह करने का होता, तो वह उसी समय कर देता। वह हमारा असली दुश्मन नहीं है।"
कालेश्वर गुस्से से वहीं चकरा गया। वह अभी भी मानने को तैयार नहीं था। "तुम सब पागल हो!" वह चिल्लाया। "पिशाच हमारा दुश्मन है, इतना सा हिसाब मत भूलना। तुम उसके साथ जाने को तैयार हो सकते हो, पर मैं नहीं!"
कालेश्वर का गुस्सा अब चरम पर पहुँच गया था। उसकी जलती हुई आँखें एक पल के लिए सब पर घूम गईं। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उसके अपने साथी, उसके साथ खून बहाने वाले योद्धा, एक पिशाच पर भरोसा करने को तैयार हैं। उसकी नज़र में, यह सीधा विश्वासघात था। वह ज़ोर से गुर्राया और ज़मीन पर अपने पैर पटक दिए।
"मैंने इतने सालों में बस एक ही बात सीखी है, पिशाच हमारी नस्ल के नहीं हैं। वे कभी हमारे साथ नहीं हो सकते। और अब तुम ही हो जो उस सोच को धोखा दे रहे हो!" वह अचानक उठ खड़ा हुआ।
"अगर तुम सब उसकी तरफ़ चलेभी जाओ, तो भी मैं नहीं जाऊँगा। मुझे अब भी पता है कि मेरा असली दुश्मन कौन है, और वह अभी मेरे सामने खड़ा है!" उसने अपना पंजा राजवीर की ओर इशारा किया। एक पल के लिए पूरा जंगल खामोश हो गया। कोई कुछ नहीं बोला। आख़िरकार, कालेश्वर क्रोधित होकर पीछे मुड़ा और जंगल के अँधेरे में गायब हो गया। उसके दो पक्के साथी भी उसके पीछे जा चुके थे।
राजवीर और बलदेव ने एक-दूसरे की ओर देखा। एक बड़ा संघर्ष टल गया था, लेकिन अब उन्हें एक बड़े युद्ध की तैयारी करनी बाकि थी।
क्रमशः
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