भाग ७८
सर्पकला जितनी तेज़ी से भाग सकती थी, जंगल की ओर भाग रही थी। अब उसके मन में बस एक ही विचार था, सहस्त्रपाणि के पास जाकर राजवीर को खत्म करने के लिए उसकी मदद माँगना। वह अभी भी अपने साथ हुए अपमान से जल रही थी। राजवीर और उसके भेड़ियों के लिए उसके मन में नफ़रत का ज्वालामुखी फूट रहा था।
वह अभी तक अपने असली पिशाच रूप में वापस नहीं आई थी। वह एक छोटे से नेवले का रूप धारण करके झाड़ियों के बीच तेज़ी से आगे बढ़ रही थी ताकि जंगल में किसी का ध्यान उसकी ओर न जाए। वह उस घने जंगल में, जो अँधेरे सायों, ऊँचे पेड़ों और टर्राहट की आवाज़ों से भरा था, बड़ी सावधानी से अपना रास्ता बना रही थी। उसके अंदर एक ही विचार जल रहा था, राजवीर ने उसका अपमान किया था, उसे कैद करने की कोशिश की थी, लेकिन अब वह आज़ाद थी। और इस बार वह उसका बदला चुकाए बिना शांत नहीं बैठने वाली थी।
उसका छोटा, दुबला-पतला शरीर झाड़ियों के बीच से चमकती हुई परछाई की तरह आगे बढ़ रहा था। अचानक, उसके सामने एक बड़ा बरगद का पेड़ आया। उस पेड़ की मोटी शाखाएँ आसमान तक फैली हुई थीं, मानो वे पूरे जंगल पर छाई हुई हों। उसने उस पेड़ की अँधेरी छाया में थोड़ी देर आराम करने का फैसला किया। जैसे ही वह जल्दी से अपने असली पिशाच रूप में लौटी, उसकी लाल-लाल आँखों में एक अलग ही चमक आई। वह गहरी साँसें ले रही थी, मानो अपने भयंकर क्रोध को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही हो।
लेकिन उसके कानों ने कुछ सुना, सामने वाले पेड़ के पीछे से कोई बोल रहा था। यह संभाषण सीधा-सादा नहीं था। इसमें साज़िश की बू आ रही थी, राजवीर के खिलाफ कुछ भयानक पक रहा था। उसका पूरा ध्यान उस आवाज़ पर केंद्रित था।
"वह बलदेव खुद को बहुत बुद्धिमान समझता है... लेकिन इस बार वह नहीं बचेगा!"
सर्पकला सतर्क हो गई। उसके तीखे कान घने जंगल से आ रही आवाज़ों पर ध्यान दे रहे थे। वह धीरे से एक अँधेरी छाया में छिप गई और आँखें सिकोड़कर आगे देखने लगी। सामने वाले पेड़ के नीचे दो आकृतियाँ साफ़ दिखाई दे रही थीं, एक कालेश्वर था, और दूसरी उसके दो साथी। तीनों थोड़े सतर्क लग रहे थे, लेकिन उनके चेहरों पर एक अजीब सा गुस्सा था।
कालेश्वर ज़मीन पर लकड़ी का एक टुकड़ा खुजला रहा था, लेकिन उसके सारे विचार किसी और ही दिशा में जा रहे थे। वह राजवीर और बलदेव के खिलाफ कुछ षडयंत्र रच रहा था।
सर्पकला धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ी। उसकी आँखों में क्रूरता की चमक अब और भी गहरी हो गई थी। वह परछाईं में रही और कालेश्वर और उसके साथी के बीच हो रही बातचीत सुनने लगी।
"राजवीर और बलदेव उन सभी भेड़ियों के साथ सहस्त्रपाणि की ओर जा रहे हैं," कालेश्वर ने कहा।
"जब वे किले में पहुँचेंगे, तो राजवीर उसे खत्म कर देगा और खुद राजा बन जाएगा!"
सर्पकला एक पल के लिए हिचकिचाई। उसने सोचा था कि राजवीर के लिए नफ़रत सिर्फ़ उसके ही दिल में जल रही है, लेकिन यहाँ तो उसके वफ़ादार माने जाने वाले लोगों के बीच ही उसके खिलाफ़ षडयंत्र रचे जा रहे थे। यह देखकर वह एक पल के लिए असमंजस में पड़ गई। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि राजवीर के करीबी लोग भी उससे इतना नाराज़ होंगे।
उसके मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। "अगर ये लोग उसके खिलाफ़ हैं, तो उससे अकेले लड़ने के बजाय, बेहतर होगा कि मैं उन सभी से लड़ूँ, हमें उसकी कमियाँ तुरंत पता चल जाएँगी," वह खुद से पूछ रही थी। "अगर ये लोग मेरे साथ आ जाएँ, तो मैं राजवीर को आसानी से बदनाम कर सकती हूँ!"
सर्पकला ने आँखें बंद कर लीं और गहरी साँस ली। उसके अंदर जलती बदले की आग तेज़ होती जा रही थी।
"राजवीर... तुझे अपने किए की सज़ा ज़रूर मिलेगी," उसने मन ही मन बुदबुदाया। उसकी आँखों में अब सिर्फ़ क्रूर संकल्प था।
वह पेड़ों की छाया में सावधानी से कदम बढ़ाती हुई आगे बढ़ी। कालेश्वर और उसके साथी अब भी बिना किसी शोर-शराबे के आपस में बातें कर रहे थे। उनकी आवाज़ में कड़वाहट भरी थी। सर्पकला अब भी उनकी बातें सुन रही थी।
"वह घमंडी हो रहा है। लेकिन अब बहुत हो गया! हमें उसे सबक सिखाना होगा," कालेश्वर ने धीमी लेकिन कठोर आवाज़ में कहा।
"हाँ, लेकिन हम अकेले कुछ नहीं कर सकते। उसके आस-पास बहुत सारे लोग हैं," उसके एक साथी ने जवाब दिया।
वह आगे बढ़ी। उसकी आँखों में क्रूरता की चमक थी, लेकिन चेहरे पर एक मनमोहक शांति थी। वह पेड़ की छाया से बाहर निकली, और अचानक सामने आनेसे कालेश्वर और उसके साथी उसे देखते ही ठिठक गए।
"तुम... तुम कौन हो?" कालेश्वर ने सावधानी से पूछा।
सर्पकला धीरे से मुस्कुराई। उसकी आवाज़ में एक रहस्यमय आकर्षण था।
"मैं ही हूँ जिसे राजवीर ने भी धोखा दिया था। मैंने भी उसे खत्म करने का फैसला किया है। लेकिन अब अकेले नहीं... तुम तीनों की मदद से।"
कालेश्वर और उसके साथियों ने एक-दूसरे को देखा। उनके चेहरों पर अभी भी उलझन थी।
"तुम हम पर भरोसा क्यों करने लगे हो? और हमें तुम पर भरोसा क्यों करना चाहिए?" कालेश्वर ने पूछा।
सर्पकला एक बार फिर धीरे से मुस्कुराई। उसने एक कदम आगे बढ़कर बहुत ही निर्भीक स्वर में उत्तर दिया,
"क्योंकि हमारा दुश्मन एक ही है। अगर हम साथ आ जाएँ, तो हम उसे आसानी से खत्म कर सकते हैं। मैं भी उससे नफरत करती हूँ... और मैं उसे खत्म करना चाहती हूँ!"
कालेश्वर के चेहरे पर अब एक अजीब सी संतुष्टि झलक रही थी। उसने उसकी आँखों में देखा। उसे उनमें एक ज़बरदस्त बदला दिखाई दिया, और यह देखकर उसने मुस्कुराते हुए कहा, "तो फिर हम दोस्त हैं।"
सर्पकला ने अब अपना नया खेल शुरू कर दिया था। उसने राजवीर को बर्बाद करने के लिए कालेश्वर और उसके साथी को अपने जाल में फँसा लिया था। अब वह और भी आत्मविश्वास से आगे बढ़ने वाली थी।
वह धीरे-धीरे कालेश्वर के पास गई और फुसफुसाई, "मेरे लिए, वह सिर्फ़ मेरा है... और अगर वह मेरा नहीं हुआ, तो मैं उसे किसी का नहीं होने दूँगी!"
कालेश्वर भी अब उसकी बातों से सहमत होने लगा। "मैं मदद करूँगा... हम उसे दिन के उजाले में निकालकर मार सकते हैं, लेकिन उसके साथ के भेड़ियों का क्या? वे सब उसके पीछे हैं।"
सर्पकला के चेहरे पर एक क्रूर मुस्कान फैल गई। "मैं उन्हें एक-एक करके खत्म कर दूँगी। जब राजवीर अकेला रह जाएगा, तो वह अपने आप मेरे पास आ जाएगा। और अगर वह नहीं आया... तो मैं उसे भी खत्म कर दूँगी!"
कालेश्वर अब उसकी नफ़रत की तीव्रता को महसूस कर सकता था। लेकिन एक पल में, उसे कुछ अलग सा महसूस हुआ, सर्पकला की आँखों में एक अजीब सी चमक थी। उन आँखों में कुछ बेचैनी थी।
कालेश्वर सतर्क हो गया। "तुम... तुम असल में कौन हो?"
सर्पकला धीरे से मुस्कुराई। वह अचानक अपने असली पिशाच रूप में प्रकट हो गई। उसके अचानक रूप बदलने से कालेश्वर और उसके साथी चौंक गए। "पिशाच!" कालेश्वर चीखा और पीछे हट गया।
उसने अपनी तलवार खींच ली, लेकिन सर्पकला तैयार थी। पल भर में, उसने कालेश्वर को ज़मीन पर उठाकर पटक दिया। वह छटपटाने लगा, लेकिन उसने उसे कसकर पकड़ रखा था।
"तुमने मेरे साथ आने का फैसला किया था, है ना?" वह बेरहमी से हँसी।
"तो अचानक क्या हो गया?"
कालेश्वर ने उसे दूर धकेलने की कोशिश की, लेकिन उसकी ताकत अविश्वसनीय थी। उसका स्पर्श मानो मौत का संदेश दे रहा था। कालेश्वर के साथी उसे बचाने के लिए आगे आए, लेकिन सर्पकला ने उन्हें पल भर में एक पेड़ से टकरा दिया। वे गंभीर रूप से घायल हो गए और रोने लगे।
कालेश्वर को एहसास हो गया कि वह ज़िंदा नहीं बच पाएगा। वह चिल्लाया, "तुम पिशाच हो, हमारे दुश्मन!"
सर्पकला ने ठंडे स्वर में कहा, "हाँ, तो अब तुम क्या करोगे? अब तुम बेकार हो। मुझे तुमसे जो चाहिए था, मिल गया, अब मैं तुम्हें ज़िंदा नहीं रखूँगी?"
उसने उसे उठाकर दूर फेंक दिया। कालेश्वर पेड़ से ज़ोर से टकराया और कराहता हुआ ज़मीन पर गिर पड़ा। उसका साथी इधर-उधर हिल रहा था, लेकिन वह भी गंभीर रूप से घायल हो गया था।
वे दोनों अभी भी बेहोश थे, लेकिन उनकी आँखों में मौत का डर साफ़ दिखाई दे रहा था।
सर्पकला ने उन्हें तिरस्कार से देखा और कहा, "तुम जैसे कीड़ों से मुझे कोई मतलब नहीं। लेकिन तुम्हारी वजह से मुझे राजवीर के बारे में नई जानकारी मिली है। इसलिए तुम्हारे जीवन का यह योगदान ही काफ़ी है।"
वह हँसी और अचानक एक ज़ोरदार छलांग लगाकर घने जंगल में विलीन हो गई।
उसके कदमों की आहट झाड़ियों में धीमी पड़ गई, और कुछ ही देर में वह वापस जंगल के रास्ते पर आ गई। उसका एकमात्र लक्ष्य था, सहस्त्रपाणि तक पहुंचना और राजवीर के विरुद्ध एक भयानक षड्यंत्र रचना।
क्रमशः
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