भाग ८५
आशय एक पल के लिए वज्रदंत के निर्जीव शरीर को देखता रहा। उसे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि इस शक्तिशाली राक्षस का अंत हो चुका है। लेकिन उसके पास ज़्यादा समय नहीं था। उसने गाँव की ओर देखा और उसके मन में एक बेचैनी सी छा गई, क्या राजवीर अभी ज़िंदा है?
बिना एक पल गँवाए वह दौड़ पड़ा। जैसे ही वह गाँव के द्वार पर पहुँचा, उसकी आँखों के सामने एक बेबस दृश्य उभर आया, हर जगह चीज़ें बिखरी पड़ी थीं। कुछ भेड़िये खून से लथपथ कराह रहे थे। एक तरफ़, राजवीर मिट्टी में पड़ा था, उसकी साँसें धीमी चल रही थीं और चेहरा पीला पड़ रहा था। आशय का दिल बैठ गया।
उसने जल्दी से राजवीर के शरीर पर हाथ फेरा। उसका दिल धीरे-धीरे धड़क रहा था, लेकिन धड़क रहा था। समय बर्बाद करने का कोई सवाल ही नहीं था। आशय ने जल्दी से अपनी जेब से एक छोटी सी दवा की थैली निकाली। यह दवा दुर्लभ पौधों से बनी थी, जिन्हें उसने सालों के शिकार से इकट्ठा किया था। उसने राजवीर की नाक में एक चुटकी डाली और उसका मुँह हल्के से बंद कर दिया, ताकि दवा जल्दी असर करे।
एक पल के लिए, कुछ भी नहीं हिला। आशय को शक होने लगा, शायद वह बहुत देर बाद पहुँचा था। लेकिन तभी अचानक राजवीर का शरीर झटका खाया और उसे ज़ोर से छींक आई! वह धड़ाम से उठ खड़ा हुआ, एक गहरी साँस ली और चौड़ी आँखों से चारों ओर देखा। उसकी आँखों में अभी भी उलझन थी, लेकिन वह ज़िंदा था!
राजवीर की आँखों के सामने सब कुछ धुंधला था। ज़िंदा रहने और फिर से जागने की जद्दोजहद में, उसके ज़हन में बस एक ही नाम गूंज रहा था, "आर्या।" उसके होठों से एक धीमी आवाज़ निकली,
"आर्या... ......वह कहाँ है?" उसकी आवाज़ में हताशा थी, लेकिन उससे भी ज़्यादा, एक गहरी चिंता थी। आशय ने उसे हल्के से सहारा दिया, उसकी पीठ पर हाथ रखकर उसे दिलासा देने की कोशिश की।
"वह सुरक्षित है," आशय ने शांत लेकिन दृढ़ स्वर में कहा। राजवीर ने आँखें चौड़ी कीं और आशय ने जानने की कोशिश की कि क्या राजवीर को उसपे भरोसा है या नहीं। उसके मन में अंतहीन शंकाएँ और डर था, अगर आर्या को कुछ हो गया होता? अगर उसे उठने में देर हो गई हो तो क्या?
आशय ने उसका हाथ पकड़ा और धीरे से उसे ऊपर उठाया। राजवीर अभी भी कमज़ोर था, पर रुकना नहीं चाहता था। दोनों घर की ओर चल पड़े, पर उनकी नज़रें घर के दरवाज़े पर टिकी थीं। आशय का मन भी एक तरह के भारीपन से भर गया था। उसे एहसास हो गया था कि आज की इस खूनी जंग में उसने बहुत कुछ खो दिया है, पर कुछ तो बाकी था, एक आखिरी पल।
वे घर पहुँचे, और उसी समय दरवाज़ा धीरे से खुला। आर्या बाहर आई। उसके चेहरे पर आँसू साफ़ दिखाई दे रहे थे, पर उसकी आँखों में एक शांति थी। मानो समय खुद रुककर इस पल का गवाह बन गया हो। राजवीर उसे देखकर दंग रह गया, और अगले ही पल वह उसकी बाहों में सिमट गई।
राजवीर की नज़रें सिर्फ़ आर्या पर ही टिकी थीं। उसकी काँपती साँसों की आवाज़ उसके कानों में पड़ रही थी, और उसकी आँखों में उमड़ते आँसू उसके दिल को चीर रहे थे। उसने उसे अपनी बाहों में भर लिया और कहा,
"क्या तुम ठीक हो?" उसकी आवाज़ में चिंता, प्यार और अपराध का मिश्रण था। हालाँकि, आर्या कुछ बोल नहीं पाई। उसके अंदर का सारा डर, तनाव और दर्द एक पल में फूट पड़ा, और वह अब भी उसकी छाती से लिपटकर रो रही थी। उसके आँसुओं की धार राजवीर के कोट को भिगो रही थी, लेकिन वह कुछ नहीं बोला। उसने बस उसके बालों में हाथ फेरा, मानो बिना शब्दों के उसके दर्द को खुली छूट दे रहा हो।
कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा। सिर्फ़ आर्या की सिसकियों की आवाज़ ने उस सन्नाटे को भंग किया। आख़िरकार, राजवीर ने धीमी आवाज़ में कहा, "सब ख़त्म हो गया, आर्या... अब फ़िलाल कम से कम कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। हम इस सबसे बच गए है।"
उसके शब्दों में यकीन था, लेकिन उसके मन में अभीभी, शक था कि क्या सच में ऐसा हुआ था। आर्या ने उसके आलिंगन से पीछे मुड़कर देखा। उसकी आँखों में अब भी डर की हल्की सी झलक थी, लेकिन उस डर को अब राजवीर की मौजूदगी की गर्माहट मिल गई थी। उसने अपने आँसुओं से सने गालों को पोंछा और पहली बार पूरे विश्वास से उसकी तरफ़ देखा।
आर्या थोड़ा सिहर उठी। उसे अब भी यह सब एक सपने जैसा लग रहा था। उसकी आवाज़ थोड़ी भारी थी, पर वह धीरे-धीरे सब कुछ बताने लगी।
"राजवीर, मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा कि ये कैसे हुआ... वज्रदंत जंगल में आशय से युद्ध कर रहा था, और उसी मौके का फ़ायदा उठाकर सर्पकला मुझे मारने आई। उसकी आँखों में एक अजीब सी जलन थी। उसके हाथ में तलवार सीधे मेरी ओर आई, और उसी वक़्त मुझे लगा कि बस अब अंत हो जाएगा... पर कुछ और ही हुआ!" आर्या की यादों ने उसे सिहरन से भर दिया।
राजवीर चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था, पर उसकी भौंहें सिकुड़ी हुई थीं।
"लेकिन आगे क्या हुआ, आर्या?" उसने सावधानी से पूछा। आर्या ने गहरी आवाज़ में जवाब दिया,
"जैसे ही उस तलवार ने मेरे पेट को छुआ... मानो उसके शरीर में कुछ उछल गया। पहले उसकी तलवार पिघली, फिर उसका पूरा शरीर पिघलने लगा। मैं बस उसे देखती रही, और कुछ ही पलों में वह किसी काले तरल पदार्थ में बदल गई और गायब हो गई!"
आर्या की आवाज़ में अभी भी थोड़ा सा सदमा और आश्चर्य था। राजवीर एक पल के लिए चुप रहा। उसने हल्के से आर्या के पेट पर नज़र डाली और फिर उसकी आँखों में देखा। उसी क्षण, उसके मन में एक विचार कौंधा, सर्पकला आर्या को नहीं मार सकती... क्योंकि आर्या अब सिर्फ़ एक साधारण इंसान नहीं थी। उसके अंदर कुछ अलग पनप रहा था।
आशय के मन में विचार उमड़ने लगे। आर्या के पेट में जो जीव था, वह अब साधारण नहीं था, उसमें कोई असाधारण शक्ति थी। सर्पकला जैसा शक्तिशाली राक्षसी जीव पल भर में नष्ट हो गया, वह भी बिना किसी हथियार के! इसका मतलब था कि यह जीव सिर्फ़ इंसान नहीं था, राजवीर की पिशाची शक्ति उसमें मिली हुई थी, शायद उसका अस्तित्व अनोखा था और इस धरती की किसी भी शक्ति से ज़्यादा शक्तिशाली था।
आशय को यह बात पता थी, लेकिन उसने अपने मन की बात अपने तक ही रखी। आर्या को कुछ पता नहीं था, और उसे अभी बताने का कोई मतलब नहीं था। वह पहले से ही कई बातों से तनाव में थी। वह उसे डराना नहीं चाहता था। इस रहस्य को सुलझाने के लिए उसे और समय और गहन चिंतन की ज़रूरत थी। उसने मन ही मन ठान लिया, वह जल्द ही इस बारे में और पता लगा लेगा। लेकिन अभी के लिए, सबसे ज़रूरी बात आर्या और उसके पेट में अभी भी मौजूद शक्ति को सुरक्षित रखना था!
उसी समय, राजवीर को याद आया, बलदेव! वह अभी भी कहीं बेहोश होगा। वह तुरंत उठा और बाहर गया। उसने इधर-उधर देखा तो बलदेव एक लंबे पेड़ के नीचे बेहोश पड़ा था। आशय और राजवीर दोनों दौड़कर उसके पास गए। बलदेव को अभी तक होश नहीं आया था। आशय ने उसकी आँखों पर पानी छिड़का और उसे औषधीय रस पिलाकर जगाने की कोशिश की।
धीरे-धीरे, बलदेव की पलकें हिलीं। उसने अपना सिर हिलाने की कोशिश की और आखिरकार अपनी आँखें खोलीं। "मैं... क्या मैं ज़िंदा हूँ?" उसने धीमी आवाज़ में कहा। राजवीर ने उसका हाथ पकड़ लिया और मुस्कुराया, "हाँ, बलदेव। और तुम न सिर्फ़ ज़िंदा हो, बल्कि जीत भी गए हो!"
सबका संकट टल गया था। वज्रदंत और सर्पकला दोनों का अंत हो चुका था। लेकिन इस युद्ध ने सबको बदल दिया था। अब सब एक नए सफ़र की तैयारी कर रहे थे। और सबसे बड़ा राज़ था,आर्या के गर्भ में पल रहा शिशु।
यह युद्ध तो जीत लिया गया था। लेकिन असली कहानी अभी बाकी थी!
क्रमशः
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