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रक्तपिशाच का रक्तमणि _४४

रक्तपिशाच और मानव कन्या की प्रेम कहानी
भाग ४४

पूरे गाँव में अँधेरी रात छा गई थी। आसमान में चाँद धुंधला सा था, मानो अँधेरा उसे निगल जाएगा। गाँव के मुख्य चौराहे पर कुछ आदमी रस्सियों से कसकर बंधे हुए थे। उनके हाथ-पैर कसकर बांधे लग रहे थे, और उनके शरीर ज़ख्मों से भर चुके थे। ये लोग हिल-डुल भी नहीं सकते थे। गाँव वाले उन क्रूर चेहरों को देख रहे थे, उनकी आँखें गुस्से और नफ़रत से जल रही थीं।

"ये सब आदमी नहीं, पिशाच हैं! ये हमारे लोगों का खून पीते हैं! इन्हें ज़िंदा रखना हमारे लिए मुसीबत पालना है!" एक बूढ़ा आदमी ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था।

"हाँ! इन्हें मार डालो!" भीड़ एक साथ चिल्लाई और ज़मीन पर गिरे पत्थर उठाकर उन आदमियों पर फेंकने लगी जिन्हें उन्होंने बाँध रखा था। हर पत्थर के साथ चीखों की आवाज़ हवा में गूँज रही थी।

सहस्त्रपाणि और उसका परिवार भी उस भीड़ में रस्सियों से कसकर बंधा हुआ था। उसके चेहरे पर दर्द साफ़ झलक रहा था, लेकिन उसकी आँखों में दर्द उससे भी ज़्यादा था। उसके बगल में उसकी पत्नी खड़ी थीं, जो काँप रही थीं। उसके गाल पहले से ही चोटिल थे, और अब उसे और भी ज़्यादा दर्द हो रहा था। सहस्त्रपाणि ने खुद को छुड़ाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसकी सारी कोशिशें बेकार गईं।

तभी, रात के अँधेरे में गाँव के एक तरफ से अचानक दो साये उभरे। वे शूरसेन और राजवीर थे। उनके हाथों में धुआँ  बनाने वाली मशाल थी।

"यही सही मौका है," शूरसेन राजवीर के कान में फुसफुसाया।

राजवीर ने साँस छोड़ी और मशाल में धुआँ जलाया। पल भर में, वह धुएँ से भर गया। उसने धुए की मशाल पूरे गाँव में फेंक दी। कुछ ही पलों में, पूरा वातावरण धुएँ से भर गया। गाँव वालों की आँखों से आँसू बहने लगे, और उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।

"क्या हो रहा है?" किसी ने डर के मारे चिल्लाया।

इस अफरा-तफरी का फायदा उठाकर राजवीर और शूरसेन कैदियों की ओर दौड़े। उन्होंने जल्दी से रस्सियाँ काटकर सहस्त्रपाणि और उसके परिवार को आज़ाद कर दिया।

"चलो! जल्दी यहाँ से निकलो!" राजवीर चिल्लाया।

सहस्त्रपाणि को पहले तो कुछ समझ नहीं आया, लेकिन जब उसने देखा कि उसकी जान बचाने वाला कोई और नहीं, बल्कि राजवीर ही है, तो उसे खुशी का एहसास हुआ।

कुछ देर बाद, धुआँ धीरे-धीरे छँटने लगा और आस-पास का नज़ारा धीरे-धीरे दिखाई देने लगा, और उसी समय सहस्त्रपाणि ने बगल में देखा तो पाया कि उसकी पत्नी उसके साथ नहीं है। वह वहाँ आने वाले सभी लोगों के बीच उसे ढूँढ़ने लगा, वह कहीं नहीं मिली। उसे एहसास हुआ कि उसकी पत्नी अभी भी गाँव में है।

"मैं उसके बिना नहीं जा सकता!" वह गुस्से से चिल्लाया और फिर से गाँव की ओर भागने लगा।

"रुको! वहाँ मत जाओ, वे तुम्हें भी उसके साथ मार डालेंगे, पागल मत बनो!" राजवीर ने उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन सहस्त्रपाणि पागलों की तरह भाग गया।

जैसे ही वह गाँव के चौराहे पर पहुँचा, उसकी आँखों के सामने दूर एक भयावह दृश्य दिख रहा था, उसकी पत्नी को दोनों तरफ की भीड़ ने पत्थर मारकर मार डाला था। उसका खून ज़मीन में मिल चुका था और वह बेजान पड़ी थी। राजवीर और शूरसेन फिर उसके पीछे-पीछे गए। उन्होंने सहस्त्रपाणी का मुँह, हाथ और पैर पकड़ लिए।

वह आगे नहीं जा सका क्योंकि दो हट्टे-कट्टे आदमियों ने उसे जकड़ रखा था। रात होते ही सब इकट्ठा हुए और चुपके से गाँव से सहस्त्रपाणि की पत्नी का शव ले आए।

"नहीं!" उसे देखते ही सहस्त्रपाणि के मुँह से एक हृदय विदारक चीख निकली। उसने उसके बेजान शरीर को गले लगा लिया और ज़मीन पर बैठ गया। उसकी आँखें लाल थीं, और उसके दिल में बस एक ही भावना उमड़ रही थी,.............बदला।

राजवीर और शूरसेन उसे गांव से ज़बरदस्ती उठाकर जंगल में ले गए थे, उन्होंने उसकी जान बचाने की कोशिश की थी मगर वह उसकी पत्नी को भी बचा सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

इसी बजह से सहस्त्रपाणि के मन में एक बदला हमेशा के लिए बैठ गया।

"ये सब तुम्हारी वजह से है, राजवीर!" वह मन ही मन कहता रहा। "अगर तुमने मुझे रोका न होता या उसे अपने साथ लाया होता, तो शायद मैं उसे बचा सकता था!"

यह घटना बार-बार उसके सपनों में आती थी। हर बार उसे एक ही दृश्य दिखाई देता, वह अपनी पत्नी को बचाने के लिए भाग रहा है, लेकिन राजवीर उसे पकड़ लेता है, और अंत में उसकी पत्नी की बेरहमी से हत्या कर दी जाती है।

आज भी, सहस्त्रपाणि रात में अचानक चीखते हुए जाग गया। उसके माथे से पसीना बह रहा था, और उसकी आँखों में तीव्र पीड़ा फैल रही थी।

"राजवीर... मैं तुम्हें इस अक्षम्य पाप के लिए कभी माफ़ नहीं करूँगा!" उसने मन ही मन बुदबुदाया।

इस पीड़ा ने उसके मन में राजवीर के प्रति अपार घृणा पैदा कर दी थी। वह राजवीर की जान लेना चाहता था। जिसकी वजह से उसकी पत्नी का देहांत हुआ था। वह उस आदमी को मारना चाहता था, उसने कसम खाई थी, कि जब मैं राजवीर के खून से अपने बाल धोऊँगा, तभी मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।

जैसे-जैसे वह दिन नज़दीक आ रहा था, सहस्त्रपाणि अपनी अगली रणनीति के बारे में सोचने लगा था।

"राजवीर को ज़िंदा रखने का मतलब है बार-बार अपने दर्द को जगाना," वह मन ही मन कहता रहा। "अब समय आ गया है कि मैं उस पर घात लगाऊँ।"

गुरुकुल के प्रवेश द्वार के पास मूसलाधार बारिश में घोड़ों की टापों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। एक बड़े काले घोड़े पर सवार, क्रूरसेन अपने चार सैनिकों के साथ सहस्त्रपाणि के गुरुकुल के विशाल द्वार के सामने पहुँचा। वह पूरी तरह भीगा हुआ था, उसका चेहरा क्रोध से लाल था, और उसके शरीर पर युद्ध के निशान थे।

"दरवाजा खोलो!" क्रूरसेन चिल्लाया, उसकी आवाज़ बिजली की चमक की तरह आकाश में गूँज रही थी।

गुरुकुल के रक्षक एक क्षण के लिए झिझके, लेकिन उन्होंने जल्दी से दरवाजा खोल दिया। क्रूरसेन घोड़े से उतरा और अंदर चला गया। उसके सैनिक भी उसके पीछे-पीछे अंदर गए।

गुरुकुल के भव्य कमरे में, सहस्त्रपाणि सामने एक ऊँचे मंच पर शांत भाव से ध्यान में बैठे थे। हमेशा की तरह, उनके चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान थी। उनके दोनों तरफ उनके दो शिष्य खड़े थे, एक मधंग, जो उनका सबसे करीबी शिष्य था, और दूसरा वज्रांग, जो गुरुकुल का सबसे शक्तिशाली योद्धा माना जाता था।

क्रूरसेन के अंदर आते ही सहस्त्रपाणि ने आँखें खोलीं और मुस्कुराते हुए कहा, "आओ वत्स, आओ और मेरे लिए राजवीर का खून ले आओ। मुझे पता था कि तुमने उसे मार दिया होगा और उसका खून मेरे लिए लाए होंगे।"

सहस्त्रपाणि के सामने क्रूरसेन काँपता हुआ खड़ा था। उसके शरीर पर लगे घाव और फटे कपड़े उसकी नाकामी की गवाही दे रहे थे। उसने गहरी साँस ली और कहा, "राजवीर अभी ज़िंदा है! उसने हम पर हमला किया और मेरे दस सैनिकों को पल भर में मार डाला। मैं किसी तरह अपनी जान बचाकर भागा।"

यह सुनकर सहस्त्रपाणि के चेहरे पर क्रोध की लहर दौड़ गई। उसने मेज से एक कटोरा ज़ोर से फेंका, कटोरा दीवार से टकराकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। उसने क्रूरसेन को घूरा और दहाड़ा, "तुम मेरे सामने खड़े होने के लायक नहीं हो! मैंने तुम्हारे जैसे कमज़ोर आदमी पर भरोसा किया, और तुम नाकाम रहे! तुम्हें राजवीर को मारने के लिए भेजा गया था, और तुम अपनी जान की भीख माँगते हुए यहाँ लौट आए हो!"

क्रूरसेन ने सिर झुकाकर कहा, "स्वामी, राजवीर कोई साधारण योद्धा नहीं है। वह हर चाल में चतुर है। वह अकेला नहीं था, उसके साथ एक नर भेड़िया भी था। दोनों ही हम सबके लिए बहुत भारी थे। हमने उस तक पहुँचने की कोशिश की, लेकिन उसने जंगल का इस्तेमाल करके हमें एक-एक करके खत्म कर दिया। मेरे सैनिक मेरी आँखों के सामने ढेर हो रहे थे, और मैं कुछ नहीं कर पा रहा था..."

सहस्त्रपाणि ने उसे तिरस्कार भरी नज़रों से देखा और कहा, "मेरी सेना में कमज़ोर आदमियों के लिए कोई जगह नहीं है! लेकिन चिंता मत करो, मैंने दुर्मद को भी भाग्य से तुम्हारे पीछे भेज दिया है। मुझे उस पर पूरा भरोसा है। अब जो भी करना होगा, वह करेगा। उसने अब तक कोई भी असफल काम नहीं किया।"

सहस्त्रपाणि सिंहासन परसेही एक सेवक को आदेश दिया, "तुरंत पता लगाओ कि दुर्मद कहाँ है और उसे अगला काम करने को कहो। राजवीर का अंत दूर नहीं है!"

क्रूरसेन ने काँपते हुए सिर हिलाया। वह जानता था कि दुर्मद ने कार्रवाई करने से ही सहस्त्रपाणि का क्रोध शांत हो सकता है, अन्यथा वह स्वयं मुसीबत में पड़ जाएगा।

क्रूरसेन ने आँखें सिकोड़कर सहस्त्रपाणि से पूछा, "तुम उस पर इतना क्रोधित क्यों हो?"

सहस्त्रपाणि ने एक क्षण सोचा और फिर कहा, "क्योंकि वही मेरे सबसे बड़े दुःख का कारण है... और मैं उससे बदला लेना चाहता हूँ।"

क्रमशः

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